उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पूर्णा आज बहुत देर तक प्रेमा के पास न बैठी। चित्त बहुत उदास था। आज उसे अपनी दशा की हीनता का यथार्थ ज्ञान हुआ था। इतनी जल्द उसकी दशा क्या-से-क्या हो गई थी, वह आज उसकी समझ में आ रहा था। यह घर उसके खपरैलवाले घर से कहीं सुन्दर था। उसके कमरे में फर्श था, सुन्दर चारपाई थी, आल्मारियां थीं। बिजली की रोशनी थी, पंखा भी था; पर इस समय बिजली का प्रकाश उसकी आंखों में चुभ रहा था और पंखे की हवा देह को ज्वाला की भांति झुलसा रही थी। प्रेमा के बहुत आग्रह करने पर भी आज वह कुछ भोजन न कर सकी। आकर अपने कमरे की चारपाई पर लेटकर रोती रही। विधि उसके साथ कैसी क्रीडा कर रही थी। उसके जीवन-सर्वस्व का अपहरण करके वह उसको खिलौनों से सन्तुष्ट करना चाहती थी! उसकी दोनों आंखें फोड़कर उसे सुरम्य उपवन की शोभा दिखा रही थी, उसके दोनों हाथ काटकर उसे जलक्रीड़ा करने के लिए सागर में ढकेल रही थी!
ग्यारह बज गए थे। पूर्णा प्रकाश से आंखें हटाकर खिड़की के बाहर अंधकार की ओर देख रही थी। उस गहरे अंधेरे में उसे कितने सुंदर दृश्य दिखाई दे रहे थे–वही अपना खपरैल का घर था, वही पुरानी खाट थी, वही छोटा-सा आंगन था; और उसके पतिदेव दफ्तर से आकर उसकी ओर साहस मुख और सप्रेम नेत्रों से ताकते हुए जेब से कोई चीज निकालकर उसे दिखाते और फिर छिपा लेते थे। वह बैठी पान लगा रही थी; झपटकर उठी और पति के दोनों हाथ पकड़कर बोली–दिखा दो क्या है? पति ने मुट्ठी बन्द कर ली। उसकी उत्सुक्ता और बढ़ी। उसने खूब जोर लगाकर मुट्ठी खोली; पर उसमें कुछ न था। वह केवल कौतुक था। आह! उस कौतुक, उस क्रीड़ा में उसे अपने जीवन की व्याख्या छिपी हुई मालूम हो रही थी।
सहसा सुमित्रा ने आकर पूछा–अरे! तुम तो यहां खिड़की के सामने खड़ी हो। मैंने समझा था तुम्हें नींद आ गई होगी।
पूर्णा ने आंसू पोंछ डाले और आवाज संभालकर बोली–यह तो तुम झूठ कहती हो बहन। यह सोचती तो तुम आती क्यों?
सुमित्रा ने चारपाई पर बैठते हुए कहा–सोचा तो यही था, सच कहती हूं, पर-न-जाने क्यों चली आई। शायद तुम्हें सोते देखकर लौट जाने के लिए ही आई थी। सच कहती हूं। अब लेटो न, रात तो बहुत हो गई है।
पूर्णा ने कुछ आशंकित होकर पूछा–तुम अब तक कैसे जाग रही हो!
सुमित्रा–सारे दिन सोया जो करती हूं।
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