उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
बदरी०–अच्छा, तभी तुम बार-बार मैके जाया करती थीं! अब समझा।
देवकी–मुझे छेड़ोगे तो कुछ कह बैठूंगी।
बदरी०–तुमने अपनी बात कह डाली, तो मैं भी कह डालता हूं, मेरा भी एक मुसलमान लड़की से प्रेम हो गया था। मुसलमान होने को तैयार था। रंग-रूप में अप्सरा थी, तुम उसके पैरों की धूल को भी नहीं पहुंच सकती। मुझे अब तक उसकी याद सताया करती है।
देवकी–झूठे कहीं के, लबाड़िए। जब मैं आई, तो महीना-भर तक तो तुम मुझसे बोलते लजाते थे, मुसलमान औरत से प्रेम करते थे। वह तो तुम्हें बाजार में बेच आती। और फिर तुम लोगों की बात मैं नहीं चलाती। सच भी हो सकती है।
बदरी०–जरा प्रेमा को बुला लो, पूछ लेना ही अच्छा है।
देवकी–(झुंझलाकर) उससे क्या पूछोगे और वह क्या कहेगी, यह मेरी समझ में नहीं आता। मुझसे जब इस विषय में बातें हुई हैं, वह यही कहती रही है कि मैं क्वांरी रहूंगी। वही फिर कहेगी। मगर इतना मैं जानती हूं कि जिसके साथ तुम बात पक्की कर दोगे, उसे वरने में उसे कोई आपत्ति न होगी। इतना वह जानती है कि गृहस्थ की कन्या क्वांरी नहीं रह सकती।
बदरी०–रो-रोकर प्राण तो न दे देगी।
देवकी–नहीं, मैं ऐसा नहीं समझती। कर्त्तव्य का उसे बड़ा ध्यान रहता है। और यों तो फिर दुःख है ही, जिसे मन में अपना पति समझ चुकी थी, उसके हृदय से निकालकर फेंक देना क्या कोई आसान काम है? यह घाव कहीं बरसों में जाकर भरेगा। इस साल तो वह विवाह करने पर किसी तरह न राजी होगी।
बदरी०–अच्छा, मैं ही एक बार उससे पूछूंगा। इन पढ़ी-लिखी लड़कियों का स्वभाव कुछ और हो जाता है। अगर उनके प्रेम और कर्त्तव्य में विरोध हो गया, तो उनका समस्त जीवन दुःखमय हो जाता है। वे प्रेम और कर्त्तव्य पर उत्सर्ग करना नहीं जानतीं या नहीं चाहतीं। हां, प्रेम और कर्त्तव्य में संयोग हो जाए, तो उनका जीवन आदर्श हो जाता है। ऐसा ही स्वभाव प्रेमा का भी जान पड़ता है। मैं दानू को लिखे देता हूं कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है; लेकिन प्रेमा से पूछकर ही निश्चय कर सकूंगा।
सहसा कमलाप्रसाद आकर बोले–आपने कुछ सुना? बाबू अमृतराय एक वनिता-आश्रम खोलने जा रहे हैं। कमाने का यह नया ढंग निकाला है।
बदरी प्रसाद ने जरा माथा, सिकोड़ कर पूछा–कमाने का ढंग कैसा, मैं नहीं समझा?
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