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उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


लेकिन इस घर को त्याग देने का संकल्प करके भी पूर्णा निकल न सकी? कहां जाएगी? जा ही कहां सकती? इतनी जल्दी चला जाना, क्या इस लांछन को और भी सुदृढ़ न कर देगा। विधवा पर दोषारोपण करना कितना आसान है। जनता को उसके विषय में नीची धारणा करते देर नहीं लगती; मानो कुवासना ही वैधव्य की स्वाभाविक वृत्ति है, मानो विधवा हो जाना, मन की सारी दुर्वासनाओं, सारी दुर्बलताओं का उमड़ आना है। पूर्णा केवल करवट बदल कर रह गयी।

भोजन करने जाते समय सुमित्रा पूर्णा को साथ ले लिया करती थी। आज भी उसने आकर कमरे के द्वार से पुकारा। पूर्णा ने बड़ी विन्रमता से कहा–बहन, आज तो मुझे भूख नहीं है। सुमित्रा ने फिर आग्रह नहीं किया, चली गयी।

बारह बजे के पहले तो कमलाप्रसाद कभी अन्दर सोने न आते; लेकिन आज एक बज गया, दो बज गए, फिर भी उनकी आहट न मिली। यहां तक कि तीन बजे के बाद उनके कानों में द्वार बन्द होने की आवाज सुनाई पड़ी। सुमित्रा ने अन्दर से किवाड़ बन्द कर लिए थे। कदाचित् अब उसे भी आशा न रही; पर पूर्णा अभी तक उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। यहां तक कि शेष रात भी इन्तजार में कट गयी। कमलाप्रसाद नहीं आए।

अब समस्या जटिल हो गयी। सारे घर में इसकी चर्चा होगी। जितने मुंह हैं, उतनी ही बातें होंगी; और प्रत्येक मुख से उसका रूप और आकार कुछ बड़ा होकर ही निकलेगा। उन रहस्यमय कनफुसियों और संकेतों की कल्पना करके तो उसका हृदय मानो बैठ गया। उसने मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना की–भगवन्, तुम्हीं अब मेरे अवलम्ब हो; मेरी लाज अब तुम्हारे ही हाथ है!

पूर्णा सारे दिन कमला से दो-चार बातें करने का अवसर खोजती रही, पर वह घर में आए ही नहीं और मर्दानी बैठक में वह स्वयं संकोच-वश न जा सकी। आज इच्छा न रहते हुए भी उसे भोजन करना पड़ा। उपवास करके लोगों को मनमानी आलोचनाएं करने का अवसर वह क्यों देती?

यद्यपि सुमित्रा ने इन दो दिनों से उसकी ओर आंख उठाकर देखा भी नहीं, किन्तु आज संध्या समय पूर्णा उसके पास जाकर बैठ गयी। सुमित्रा ने कहा–आओ बहन, बैठो। मैंने तो आज अपने दादाजी को लिख दिया है कि आकर मुझे ले जाएं। यहां रहते-रहते जी ऊब गया है।

पूर्णा ने मुस्कराकर कहा–मैं भी चलूंगी, यहां अकेली कैसी रहूंगी?

सुमित्रा–नहीं, दिल्लगी नहीं करती बहन! यहां आए बहुत दिन हो गए, अब जी नहीं लगता। कल महाशय रात भर गायब रहे शायद समझते होंगे कि मनाने आती होगी। मेरी बला जाती। मैंने अन्दर से द्वार बन्द कर लिए।

पूर्णा ने बात बनायी–बेचारे आकर लौट गए होंगे।

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