उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पर सुमित्रा इतनी आसानी से माननेवाली न थी। आज की रात भी यों ही गुजर गयी। पूर्णा सारी रात आहट लेती रही। कमलाप्रसाद न आए। इसी तरह कई दिन गुजर गए। सुमित्रा का अब कमलाप्रसाद की चर्चा करते दिन बीतता था। उनकी सारी बुराइयां उसे विस्मृत होती जाती थीं–सारे गिले शिकवे भूलते जाते थे। वह उनकी स्नेहमयी बातें याद करके रोती थी; पर अभी तक मान का बन्धन न टूटा था। क्षुधा से व्याकुल होने पर भी क्या किसी के सामने हाथ फैलाना सहज है? रमणी का हृदय अपनी पराजय स्वीकार कर सकता था।
दस-बारह दिन बीत गए थे। एक दिन आधी रात के बाद पूर्णा को सुमित्रा के कमरे का द्वार खुलने की आहट मिली। उसने समझा, शायद कमलाप्रसाद आए हैं। अपने द्वार पर खड़ी होकर झांकने लगी। सुमित्रा अपने कमरे से दबे पांव निकलकर इधर-उधर सशंक नेत्रों से ताकती, मर्दाने कमरे की ओर चली जा रही थी। पूर्णा समझ गयी, आज रमणी का मान टूट गया। बात ठीक थी। सुमित्रा ने आज पति को मना लाने का संकल्प कर लिया था। वह कमरे से निकली, आंगन को भी पार किया, दालान से भी निकल गयी, पति-द्वार पर भी जा पहुंची। वहां पर एक क्षण तक खड़ी सोच रही थी कैसे पुकारूं? सहसा कमलाप्रसाद के खांसने की आवाज सुनकर वह भागी, बेतहाशा भागी, और अपने कमरे में आकर ही रुकी।। उसका प्रेम-पीड़ित-हृदय मान का खिलौना बना हुआ था। रमणी का मान अजेय है, अमर है, अनन्त है!
पूर्णा अभी तक द्वार पर खड़ी थी। उसे इस समय अपने सौभाग्य के दिनों की एक घटना याद आ रही थी, जब वह कई दिन के मान के बाद अपने पति को मनाने गयी थी; और द्वार पर से लौट आयी थी। क्या सुमित्रा भी द्वार पर ही से तो न लौट आएगी? वह अभी यही सोच रही थी कि सुमित्रा अन्दर आती हुई दिखाई दी। उसे जो संशय हुआ था, वही हुआ। पूर्णा के जी में आया कि जाकर सुमित्रा से पूछे, क्या हुआ। तुम उनसे कुछ बोली या बाहर ही से लौट आयी; पर इस दशा में सुमित्रा से कुछ पूछना उचित न जान पड़ा। सुमित्रा ने कमरे में जाते ही दीपक बुझा दिया, कमरा बन्द कर लिया और सो रही।
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