उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
कहार चला गया, तो पूर्णा ने कहा–बहन क्यों रार बढ़ाती हो। लाओ मुझे कुंजी दे दो, मैं निकालकर दे दूं। उनका क्रोध जानती हो?
सुमित्रा–यहां किसी की धौंस सुननेवाली नहीं हूं। सौ दफे गरज हो, आकर अपनी अचकन ले जाएं। मुझे कोई तनख्वाह नहीं देते।
कहार ने लौटकर कहा–सरकार कहते हैं कि अचकन लोहेवाली सन्दूक में धरी है।
सुमित्रा–तूने कहा नहीं कि जाकर निकाल लाओ। क्या इतने कहते जीभ गिरी जाती थी?
कहा–इ तो हमने नहीं कहा सरकार! आप दूनों परानी छिन भर मां इक्के होइ हैं, बीच में हमारा कुटम्मस होइ जाई।
सुमित्रा–अच्छा, तो यहां से भाग जा, नहीं पहले मैं ही पीटूंगी।
कहार मुंह लगा था। बोला–सरकार का जितना मारै का होय मार लें; मुदा बाबूजी से न पिटावें। अस घूंसा मारत हैं सरकार कि कोस-भर लै धमाका सुनात है।
सुमित्रा को हंसी आ गई। हंसती हुई बोली–तू भी तो इसी तरह अपनी मेहरिया को पीटता है। यह उसी का दण्ड है।
कहार–अरे सरकार, जो इ होत त का पूछै का रहा। मेहरिया अस गुनन की पूरी मिली है कि बात पीछू करत है झाड़ू पहले चलावत है। जो सरकार; सुन भर पावै कि कौनो दूसरी मेहरिया से हंसत रहा, तो खड़ै लील जाए, सराकर, थर-थर कांपित हैं, बहूजी से तौन इतना नहीं डेराइत है।
सुमित्रा–तो तू जन्म का लतखोर है! भाग, जा कह दे अपनी अचकन ले जाएं। क्या पैर में मेंहदी लगी है? यह जरूर कहना।
कहार–जाइत है सरकार, आज भले का मुंह नाहीं देखा जान परत है।
कहार चला गया तो पूर्णा ने कहा–सखी तुम छेड़-छेड़ लड़ती हो। मैं तो यहां से भागी जाती हूं।
सुमित्रा ने उसका आंचल पकड़ लिया–भागती कहां हो? जरा तमाशा देखो! क्या शेर है जो खा जाएंगे।
पूर्णा–क्रोध में आदमी अन्धा हो जाता है बहन! कहीं कोई कुवचन कह बैठे तो?
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