उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
कहार ने दबी जबान से कहा–अभी तो नहीं सरकार!
कमलाप्रसाद ने गरजकर कहा–जोर से बोलो, बरफ लाए कि नहीं? मुंह में आवाज नहीं है?
कहार की आवाज अबकी बिल्कुल बन्द हो गई। कमलाप्रसाद ने कहार के दोनों कान पकड़कर हिलाते हुए कहा–हम पूछते हैं, बरफ लाए कि नहीं।
कहार ने देखा कि अब बिना मुंह खोले कानों के उखड़ जाने का भय है, तो धीरे से बोला–नहीं सरकार।
कमला०–क्यों नहीं लाए।
कहार–पैसे न थे।
कमला०–क्यों पैसे न थे? घर में जाकर मांगे थे?
कहार–हां हुजूर, किसी ने सुना नहीं।
कमला०–झूठ बोलता है। मैं जाकर पूछता हूं। अगर मालूम हुआ कि तूने पैसे नहीं मांगे थे तो कच्चा ही चबा जाऊंगा, रैस्कल!
कमलाप्रसाद ने कपड़े भी नहीं उतारे। क्रोध में भरे हुए घर में आकर मां से पूछा–क्यों अम्मां, बदलू तुमसे बरफ के लिए पैसे लेने आया था?
देवकी ने बिना उसकी ओर देखे ही कहा–आया होगा, याद नहीं आता। बाबू अमृतराय से तो भेंट नहीं?
कमला०–नहीं, उससे तो भेंट नहीं हुई। उनकी तरफ गया तो था, लेकिन जब सुना कि वह किसी सभा में गए हैं तो मैं सिनेमा चला गया। सभाओं का तो उन्हें रोग है और मैं उन्हें बिल्कुल फिजूल समझता हूं। कोई फायदा नहीं। बिना व्याख्यान सुने भी आदमी जीता रह सकता है और व्याख्यान देने वालों के बगैर भी दुनिया के रसातल में जाने की सम्भावना नहीं। जहां देखो वक्ता ही वक्ता नजर आते हैं, बरसाती मेढकों की तरह टर-टर किया और चलते हुए। अपना समय गंवाया और दूसरों को हैरान किया। सब-के-सब मूर्ख हैं।
देवकी०–अमृतराय ने तो आज डोंगा ही डुबा दिया। अब किसी विधवा से विवाह करने की प्रतिज्ञा की है।
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