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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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एक बूढ़े ने कहा–साहब, मेरी तो जिदंगी-भर की कमाई मिट्टी में मिल गयी। अब कफन का भी भरोसा नहीं।

धीरे-धीरे और लोग भी एकत्र हो गये और साधारण बातचीत होने लगी। प्रत्येक मनुष्य अपने पास वाले को अपनी दु:ख-कथा सुनाने लगा। कुँवर महोदय आधे घंटे तक नसीम के साथ खड़े ये विपद् कथाएँ सुनते रहे। ज्यों ही मोटर पर बैठे और होटल की ओर चलने की आज्ञा दी, त्यों ही उनकी दृष्टि एक मनुष्य पर पड़ी जो पृथ्वी पर सिर झुकाये बैठा था। यह एक अहीर था, लड़कपन में कुँवर साहब के साथ खेला था। उस समय उनमें ऊँच-नीच का विचार न था। साथ कबड्डी खेले थे। साथ पेड़ों पर चढ़े और चिड़ियों के बच्चे चुराये थे। जब कुँवर जी देहरादून पढ़ने गये, तब यह अहीर का लड़का शिवदास अपने बाप के साथ लखनऊ चला आया। उसने यहाँ एक दूध की दूकान खोल ली थी। कुँवर साहब ने उसे पहचाना और उच्च स्वर से पुकारा–अरे शिवदास इधर देखो।

शिवदास ने बोली सुनी, परन्तु सिर ऊपर न उठाया। वह अपने स्थान से बैठा ही कुँवर साहब को देख रहा था। बचपन के वे दिन याद आ रहे थे, जब वह जगदीश के साथ गुल्ली-डंडा खेलता था, जब दोनों बुड्ढे गफूर मियाँको मुँह चिढ़ाकर घर में छिप जाते थे, जब वह इशारों से जगदीश को गुरु जी के पास से बुला लेता था, और दोनों रामलीला देखने चले जाते। उसे विश्वास था कि कुँवर जी मुझे भूल गये होंगे, वे लड़कपन की बातें अब कहाँ? कहाँ मैं, और कहाँ वह! लेकिन जब कुँवर साहब ने उसका नाम लेकर बुलाया तो उसने प्रसन्न होकर मिलने के बदले उसने और भी सिर नीचा कर लिया और वहाँ से टल जाना चाहा। कुँवर साहब की सहृदयता में अब वह साम्य भाव न था। मगर कुँवर साहब उसे हटते देखकर मोटर से उतरे और उसका हाथ पकड़ कर बोले–अरे शिवदास, क्या मुझे भूल गये?

शिवदास अब अपने मनोवेग को रोक न सका। उसके नेत्र डब-डबा गये। कुँवर के गले लिपट गया और बोला–भूला तो नहीं, पर आपके सामने आते लज्जा आती है।

कुँवर–यहाँ दूध की दूकान करते हो क्या? मुझे मालूम ही न था, नहीं तो अठवारों से पानी पीते-पीते जुकाम क्यों होता? आओ, इसी मोटर पर बैठ जाओ। मेरे साथ होटल तक चलो। तुमसे बातें करने को जी चाहता है। तुम्हें बरहल ले चलूँगा और एक बार फिर गुल्ली-डंडे का खेल खेलेंगे। 

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