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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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मैं अब भी परदा करती थी, परन्तु हृदय अपनी सुन्दरता की सराहना सुनने के लिए व्याकुल रहता था। एक दिन मिस्टर दास तथा और सभ्यगण बाबू जी के साथ बैठे हुए थे। मेरे और उनके बीच में केवल एक परदे की आड़ थी। बाबू जी मेरी इस झिझक से बहुत ही लज्जित थे। इसे वह अपनी सभ्यता में काला धब्बा समझते थे। कदाचित् यह दिखाना चाहते कि मेरी स्त्री इसलिए परदे में नहीं है कि वह रूप तथा वस्त्राभूषणों में किसी से कम है बल्कि इसलिए कि अभी उसे लज्जा आती है। वह मुझे किसी बहाने से बारम्बार परदे के निकट बुलाते, जिसमें उनके मित्र मेरी सुन्दरता और वस्त्राभूषण देख लें। अन्त में कुछ दिन बाद मेरी झिझक गायब हो गयी। इलाहाबाद आने के पूरे दो वर्ष बाद मैं बाबू जी के साथ बिना परदे के सैर करने लगी। सैर के बाद टेनिस की नौबत पहुँची। अन्त को मैंने क्लब में आकर दम लिया। पहले यह टेनिस और क्लब मुझे तमाशा-सा मालूम होता था मानो वे लोग व्यायाम के लिए नहीं बल्कि फैशन के लिए टेनिस खेलने आते थे। वे कभी न भूलते थे कि हम टेनिस खेल रहे हैं। उनके प्रत्येक काम में, झुकने में, दौड़ने में, उचकने में एक कृत्रिमता थी, जिससे यह प्रतीत होता था कि इस खेल का प्रयोजन कसरत नहीं, केवल दिखावा है।

क्लब में इससे विचित्र अवस्था थी। वह पूरा स्वांग था, भद्दा और बेजोड़। लोग अंग्रेजी के चुने हुए शब्दों का प्रयोग करते थे, जिसमें कोई सार न होता था। नकली हँसी हँसते थे, जिसका कि अवसर न होता था। स्त्रियों की वह फूहड़ निर्लज्जता और पुरुषों की वह भाव-शून्य नारी-श्रद्धा मुझे तनिक भी न भाती। चारों ओर अंग्रेजी चाल-ढाल की हास्यजनक नकल थी। परन्तु क्रमश : मैं भी वही रंग पकड़ने लगी और उन्हीं का अनुसरण करने लगी। अब मुझे अनुभव हुआ कि इस प्रदर्शन-लोलुपता में कितनी शक्ति है। मैं अब नित्य नये श्रृंगार करती, नित्य नया रूप भरती, केवल इसलिए कि क्लब में मैं सबकी दृष्टि का लक्ष्य बन जाऊँ। अब मुझे बाबू जी के सेवा सत्कार से अधिक अपने बनाव श्रृंगार की धुन रहती थी। यहाँ तक कि यह शौक एक नशा-सा बन गया। इतना ही नहीं, बल्कि लोगों से अपनी सौदर्न्य प्रशंसा सुन कर मुझे एक अभिमान-मिश्रित आनंद का अनुभव होने लगा। मेरी लज्जाशीलता की सीमाएँ विस्तृत हो गयीं। वह दृष्टिपात जो कभी मेरे शरीर के प्रत्येक रोएँ को खड़ा कर देता, और वह हास्य कटाक्ष, जो कभी मुझे विष खा लेने को प्रस्तुत कर देता, उनसे अब मुझे एक उन्माद-पूर्ण हर्ष होता था। परन्तु जब कभी मैं अपनी अवस्था पर आंतरिक दृष्टि डालती तो मुझे बड़ी घबराहट होती। यह नाव किस घाट लगेगी? कभी-कभी इरादा करती कि क्लब न जाऊँगी, परन्तु समय आते ही फिर तैयार हो जाती। मैं अपने वश में न थी। मेरी सद्कल्पनाएँ निर्बल हो गयी थीं।

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