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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


भाइयों ने भोजन कर लिया। दूजी को पुनः कहने का साहस न हुआ उसे उनके तेवर आज कुछ बदले हुए मालूम होते थे। भोजनोपंरात दोनों भाई दीपक ले कर भंडारे की कोठरी में गये। अनावश्यक बर्तन, पुराने सामान, पुरुषाओं के समय के अस्त्र-शस्त्र आदि इसी कोठरी में रखे थे। गाँव में जब कोई बकरा देवी जी को भेंट में दिया जाता था तो यह कोठरी खुलती थी। आज तो ऐसी कोई बात नहीं है। इतनी रात गये यह कोठरी क्यों खोली जाती है? दूजी को किसी भावी दुर्घटना का संदेह हुआ। वह दबे पाँव दरवाजे पर गयी तो देखती क्या है गुमानसिंह एक भुजाली लिए पत्थर पर रगड़ रहा है। उसका कलेजा धक्-धक् करने लगा और पाँव थर्राने लगे। वह उल्ले पाँव लौटना चाहती थी कि शानसिंह की आवाज सुनायी दी– ‘‘इसी समय एक घड़ी में चलना ठीक है। पहली नींद बड़ी गहरी होती है। बेधड़क सोता होगा।’’ गुमानसिंह बोले–‘‘अच्छी बात है, देखो, भुजाली की धार? एक हाथ में काम तमाम हो जायगा!’’

दूजी को ऐसा ज्ञात हुआ मानो किसी ने पहाड़ पर से ढकेल दिया। सारी बातें उसकी समझ में आ गयीं। वह भय की दशा में घर से निकली और ललनसिंह के चौपाल की ओर चली। किंतु वह अँधेरी रात प्रेम की घाटी थी और वह रास्ता प्रेम का कठिन मार्ग। वह इस सुनसान अँधेरी रात में चौकन्ने नेत्रों से इधर-उधर देखती, विह्वलता की दशा में शीघ्रतापूर्वक चली जाती थी। किंतु हाय निराशा! एक-एक पल उसे प्रेम-भवन से दूर लिये जाता था। उस अँधेरी भयानक रात्रि में भटकती, न जाने वह कहाँ चली जाती थी, किससे पूछे। लज्जावश किसी से कुछ न पूछ सकती थी। कहीं चूड़ियों का झनझनाना भेद न खोल दे। क्या इन अभागे आभूषणों को आज ही झनझनाना है? अंत में एक वृक्ष के तले वह बैठ गयी। सब चूड़ियाँ चूर-चूर कर दी, आभूषण उतार कर आंचल में बाँध लिये। किंतु हाय! यह चूड़ियाँ सुहाग की चूड़ियाँ थीं और यह गहने सुहाग के गहने थे जो एक बार उतार कर फिर न पहने गये।

उसी वृक्ष के नीचे पयस्विनी नदी पत्थर के टुकड़ों से टकराती हुई बहती थी। यहाँ नौकाओं का निर्वाह दुस्तर था। दूजी बैठी हुई सोचती, क्या मेरे जीवन की नदी में प्रेम की नौका दुःख की शिलाओं से टक्कर खा कर डूब जायगी!

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