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प्रेम पचीसी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :384
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8582
आईएसबीएन :978-1-61301-112

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मुंशी प्रेमचन्द की पच्चीस प्रसिद्ध कहानियाँ


इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिए की ही करतूत हो, बहुत सम्भव है, उसने मुझे बक्स में थैली रखते देखा था। रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे हजार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में सरलता होती। क्या करूँ पुलिस को खबर दूँ? व्यर्थ बैठे-बिठाये उलझन मोल लेनी है। टोले भर के आदमियों की दरवाजे पर भीड़ होगी। दस-पाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और फल कुछ नहीं! तो क्या धीरज धर कर बैठ रहूँ? कैसे धीरज धरूँ! यह कोई सेंतमेंत मिला धन तो था नहीं, हराम की कौड़ी होती तो सोचता कि जैसे आयी वैसे चली गयी। यहाँ एक-एक पैसा अपने पसीने का है। मैं जो इतनी मितव्ययिता से रहता हूँ, इतने कष्ट से रहता हूँ, कंजूस प्रसिद्ध हूँ, घर के आवश्यक व्यय में भी काट-छाँट करता हूँ, क्या इसलिए कि किसी उचक्के के लिए मनोरंजन का समान जुटाऊँ? मुझे रेशम से घृणा नहीं, न मेवे ही अरुचिकर हैं, न अजीर्ण का रोग है कि मलाई खाऊँ और अपच हो जाय, न आँखों में दृष्टि कम है कि थियेटर और सिनेमा का आनन्द न उठा सकूँ। मैं सब ओर से अपने मन को मारे रहता हूँ इसलिए तो कि मेरे पास चार पैसे हो जायँ। काम पड़ने पर किसी के आगे हाथ फैलाना न पड़े। कुछ जायदाद ले सकूँ, और नहीं तो अच्छा घर ही बनवा लूँ पर इस मन मारने का फल! गाढ़े परिश्रम के रुपये लुट जायँ। अन्याय है कि मैं यूँ दिनदहाड़े लुट जाऊँ और उस दुष्ट का बाल भी टेड़ा न हो। उसके घर दीवाली हो रही होगी, आनंद मनाया जा रहा होगा, सब के सब बगलें बजा रहे होंगे।

डॉक्टर साहब बदला लेने के लिए व्याकुल हो गये। मैंने कभी किसी फ़कीर को, किसी साधु को, दरवाजे पर खड़ा होने नहीं दिया। अनेक बार चाहने पर भी मैंने कभी मित्रों को अपने यहाँ निमंत्रित नहीं किया, कुटुम्बियों और संबंधियों से सदा बचता रहा, क्या इसलिए। उसका पता लग जाता तो मैं एक विषैली सुई से उसके जीवन का अंत कर देता।

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