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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


इस प्रलोभन से पंडित जी को एक क्षण के लिए विचलित कर दिया, किंतु मूर्खता के कारण ईश्वर का भय उनके मन में कुछ-कुछ बाकी था। सँभलकर बोले–अरी पगली, ठाकुर जी भक्तों के मन का भाव देखते हैं कि चरण पर गिरना देखते है। सुना नहीं है– ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ मन में भक्ति न हो, तो लाख कोई भगवान् के चरणों पर गिरे, कुछ न होगा। मेरे पास एक जंतर है। दाम तो उसका बहुत है पर तुझे एक ही रुपये में दे दूँगा। उसे बच्चे के गले में बाँध देना, बस, कल बच्चा खेलने लगेगा।

सुखिया–ठाकुर जी की पूजा न करने दोगे?

पुजारी–तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। जो बात कभी नहीं हुई, वह आज मैं कर दूँ और गाँव पर कोई आफत-विपत आ पड़े तो क्या हो, इसे भी तो सोचो! तू यह जंतर ले जा, भगवान् चाहेंगे तो रात ही भर में बच्चे का क्लेश कट जायेगा। किसी की दीठ पड़ गयी है। है भी तो चोंचाल। मालूम होता है, छत्तरी बंस है।

सुखिया–जब से इसे ज्वर है मेरे प्राण नहों में समाये हुए हैं।

पुजारी–बड़ा होनहार बालक है। भगवान् जिला दें तो तेरे सारे संकट हर लेगा। हाँ, तो बहुत खेलने आया करता था। इधर दो-तीन दिन से नहीं देखा था।

सुखिया–तो जंतर को कैसे बाँधूँगी महाराज?

पुजारी-मैं कपड़े में बाँधकर देता हूँ। बस, गले में पहना देना अब तू इस बेला नवीन बसतर कहाँ खोजने जायेगी।

सुखिया ने दो रुपये पर कड़े गिरो रखे थे। एक पहले ही भँजा चुकी थी। दूसरा पुजारी जी को भेंट किया और जंतर लेकर मन को समझाती हुई घर लौट आयी।

सुखिया ने घर पहुँचकर बालक को जंतर बाँध दिया, पर ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी उसका ज्वर भी बढ़ता जाता था, यहाँ तक कि तीन बजते-बजते उसके हाथ-पाँव शीतल होने लगे। तब वह घबड़ा उठी और सोचने लगी–हाय। अगर मैं अन्दर चली जाती और भगवान् के चरणों में गिर पड़ती तो कोई मेरा क्या कर लेता? यही न होता कि लोग मुझे धक्के देकर निकाल देते, शायद मारते भी, पर मेरा मनोरथ तो पूरा हो जाता यदि मैं ठाकुर जी के चरणों को अपने आँसुओं से भिगो देती और

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