कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
शंकर–नहीं महाराज, आपके असीस से अबकी मंजूरी अच्छी मिली।
विप्र–लेकिन यह तो ६॰ रु. ही है!
शंकर–हाँ महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए।
विप्र-उरिन तो तब होगे जब मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे १५ रु. और लाओ।
शंकर–महाराज, इतनी दया करो, अब साझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी दे ही दूँगा।
विप्र–मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से ३।। सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रखो चाहे यहाँ छोड़ जाओ।
शंकर–अच्छा, जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से १५ रु. और लाने की फिक्र करता हूँ।
शंकर ने सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रुपये न दिये, इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था, या किसी के पास रुपये न थे, बल्कि इसलिए कि पंडित जी के शिकार को छेड़ने की हिम्मत न थी।
क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल-भर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका, तो उसका संयत निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल-भर में ६॰ रु, से अधिक न जमा कर सके, तो अब और कौन-सा उपाए है, जिसके द्वारा उसके दूने रुपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ ही लदना है तो क्या मन भर का और क्या सवा मन का। उसका उत्साह क्षीण हो गया, मेहनत से घृणा हो गई।
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