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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584
आईएसबीएन :978-1-61301-113

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


वह जवाब सुनकर पंडितजी को कुछ बोलने का साहस तो न होता था, पर कलेजा मजबूत करके बोले–सरकार, अब कुछ नहीं हो सकता?

डाक्टर–अस्पताल से दवा नहीं मिल सकता। हम अपने पास से दाम लेकर दवा दे सकता है।

पंडित–यह दवा कितने की होगी सरकार?

डाक्टर साहब ने दवा का दाम १॰ रु. बतलाया; और यह भी कहा कि इस दवा से जितना लाभ होगा, उतना अस्पताल की दवा से नहीं हो सकता। बोले–वहाँ पुराना दवाई खाना रहता है। गरीब लोग आता है, दवाई ले जाता है; जिसको जीना होता है जीता है, जिसको मरना होता है मरता है। हमसे कुछ मतलब नहीं। तुमको जो दवा देगा, वह सच्चा दवा होगा।

दस रुपये! इस समय पंडित जी को दस रुपये दस लाख जान पड़े। इतने रुपये वह एक दिन में भंग-बूटी में उड़ा दिया करते थे। पर इस समय वे धेले-धेले को मोहताज थे। किसी से उधार मिलने की आशा कहाँ। हाँ, सम्भव है, भिक्षा माँगने से कुछ मिल जाए। लेकिन इतनी जल्दी दस रुपये किसी उपाए से भी नहीं मिल सकते। आध घंटे तक वे इसी उधेड़-बुन में खड़े रहे। भिक्षा के सिवा दूसरा कोई उपाय न सूझता था, और भिक्षा उन्होंने कभी माँगी न थी।

वह चंदे जमा कर चुके थे, एक-एक बार में हजारों वसूल कर लेते थे, पर वह दूसरी बात थी। धर्म के रक्षक जाति के सेवक और दलितों के उद्धारक बनकर चंदा लेने में एक गौरव था, चंदा लेकर देनेवालों पर एहसान करते थे। पर यहाँ तो भिखारियों की भाँति हाथ फैलाना, गिड़गिड़ाना और फटकारें सहनी पड़ेगी। कोई कहेगा इतने मोटे ताजे तो हो, मेहनत क्यों नहीं करते, तुम्हें भीख माँगने में शर्म नहीं आती? कोई कहेगा घास खोद लाओं, तो मैं तुम्हें अच्छी मजदूरी दूँगा। किसी को उनके ब्राह्मण होने का विश्वास न आएगा। अगर यहाँ उनकी रेशमी अचकन, साफा होता, केसरिया रंगवाला दुपट्टा ही मिल जाता, तो वह कोई स्वांग भर लेते। ज्योतिष बनकर वह किसी धनी सेठ को फाँस सकते थे। और इस फन में वह उस्ताद भी थे। पर यहाँ वह सामान कहाँ–कपड़े-लत्ते तो सब लुट चुके थे। विपत्ति में कदाचित् बुद्घि भी भ्रष्ट हो जाती है। अगर वह मैदान में होकर कोई मनोहर व्याख्यान दे देते तो शायद उनके दस-पाँच भक्त पैदा हो जाते। लेकिन इस तरह उनका ध्यान ही न गया। वह सजे हुए पंडाल में, फूलों से सुसज्जित मेज पर खड़े होकर अपनी वाणी का चमत्कार दिखला सकते थे। इस दुरावस्था में कौन उनका व्याख्यान सुनेगा? लोग समझेंगे, कोई पागल बक रहा है!

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