कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह ) प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ
महीने भर न रत्नसिंह की आँखें खुलीं और न चिंता की आँखें बन्द हुईं। चिंता उसके पास से एक क्षण के लिए भी कहीं न जाती। न अपने इलाके की परवाह थी, न शत्रुओं के बढ़ते चले आने की फिक्र। रत्नसिंह पर अपनी सारी विभूतियों को बलिदान कर चुकी थी। पूरा महीना बीत जाने के बाद रत्नसिंह की आँखें खुलीं। देखा, चारपाई पर पड़ा हुआ है, और चिंता सामने पंखा लिये खड़ी है। क्षीण स्वर में बोला–चिंता, पंखा मुझे दे दो। तुम्हें कष्ट हो रहा है।
चिंता का हृदय इस समय स्वर्ग में अखंड अपार सुख का अनुभव कर रहा था। एक महीना पहले जिस जीर्ण शरीर के सिरहाने बैठी हुई वह नैराश्य से रोया करती थी, उसे आज बोलते देखकर उसके आह्लाद का पारावार न था। उसने स्नेह-मधुर स्वर में कहा–प्राणनाथ, यदि यह कष्ट है, तो सुख क्या है, मैं नहीं जानती। प्राणनाथ इस सम्बोधन में विलक्षण मंत्र की-भी शक्ति थी। रत्नसिंह की आँखें चमक उठीं। जीवन मुद्रा प्रदीप्त हो गई, नसों में एक नये जीवन का संचार हो गया। और वह जीवन कितना स्फूर्तिमय था, उसमें कितना उत्साह कितना माघुर्य, कितना उल्लास और कितनी करुणा थी! रत्नसिंह के अंग-अंग फड़कने लगे। उसे अपनी भुजाओं पर अलौकिक पराक्रम का अनुभव होने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो सारे संसार को, सर कर सकता है, उड़कर आकाश पर पहुँच सकता है, पर्वतों को चीर सकता है। एक क्षण के लिए उसे ऐसी तृप्ति हुई, मानो उसकी सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गईं है, मानो किसी से कुछ नहीं चाहता। शायद शिव को सामने खड़े देखकर वह मुँह फेर लेगा, कोई वरदान न माँगेगा, उसे अब किसी ऋद्धि की, किसी पदार्थ की, इच्छा न थी। उसे गर्व हो रहा था, मानो उससे अधिक सुखी, उससे अधिक भाग्यशाली पुरुष संसार में और कोई न होगा!
चिंता अपना वाक्य पूरा न कर पाई थी। उसी प्रसंग में बोली हाँ, आपको मेरे कारण अलबत्ता दुस्सह यातना भोगनी पड़ी!
रत्नसिंह ने उठने की चेष्टा करके कहा–बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती। चिंता ने रत्नसिंह को कोमल हाथों से लिटाते हुए कहा–इस सिद्धि के लिए तुमने तपस्या नहीं की थी? झूठ क्यों बोलते हो? तुम केवल एक अबला की रक्षा कर रहे थे। यदि मेरी जगह कोई दूसरी स्त्री होती, तो भी तुम इतने ही प्राण-पण से उसकी रक्षा करते। मुझे इसका विश्वास है। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, मैंने आजीवन ब्रहाचारिणी रहने का प्रण कर लिया था, लेकिन तुम्हारे आत्मोत्सर्ग ने मेरे प्रण को तोड़ डाला। मेरा पालन योद्धाओं की गोद में हुआ है, मेरा हृदय उसी पुरुष–सिंह के चरणों पर अर्पण हो सकता है जो प्राणों की बाजी खेल सकता हो। रसिकों के हास-विलास, गुंडों के रूप-रंग और फेकैतों के दाँव-घात का मेरी दृष्टि में रत्ती भर भी मूल्य नहीं। उनकी नट विद्या को मैं केवल तमाशे की तरह देखती हूँ। तुम्हारे ही हृदय में मैंने सच्चा उत्सर्ग पाया, और तुम्हारी दासी हो गई–आज से नहीं, बहुत दिनों से।
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