कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
मंगलसिंह–मुझे अभी तो कोई ऐसा काम नहीं, लेकिन घर पर सलाह करूँगा।
गिरधारी–मुझे तुलसी के रुपये देने है, नहीं तो खिलाने को तो भूसा है।
मंगलसिंह–यह बड़ा बदमाश है, कहीं नालिश न कर दे।
सरल हृदय गिरधारी धमकी में आ गया। कार्यकुशल मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का अच्छा सुअवसर मिला। ८॰ रुपये की जोड़ी ६॰ रुपये में ठीक कर ली।
गिरधारी ने अब तक बैलों को न जाने किस आशा से बाँधकर खिलाया था। आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया। मंगलसिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। आह! ये मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले, जिनके लिए पहर रात से उठकर छांटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिन्ता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा दिन-भर हरियाली उखाड़ा करता था, ये मेरी आशा की दो आँखें, मेरे इरादे के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों के दो चिह्न, मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं।
जब मंगलसिंह ने रुपये गिनकर रख दिए और बैलों को ले चले, तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रखकर खूब फूट-फूटकर रोया। जैसे कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था। सुभागी भी दालान में पड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था!
रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया। चारपाई पर पड़ा रहा। प्रातःकाल सुभागी चिलम भरकर ले गयी, तो वह चारपाई पर न था। उसने समझा, कहीं गये होंगे। लेकिन जब दो-तीन घड़ी दिन चढ़ आया और वह न लौटा, तो उसने रोना-धोना शुरू किया। गाँव के लोग जमा हो गए, चारों ओर खोज होने लगी, पर गिरधारी का पता न चला।
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