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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ

बोध

पंडित चंद्रधर ने अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी तो कर ली थी, किन्तु सदा पछताया करते थे कि कहाँ से इस जंजाल में आ फँसे। यदि किसी अन्य विभाग में नौकर होते, तो अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता। यहाँ तो महीने भर प्रतीक्षा करने के पीछे कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं। वह भी इधर आये, उधर गायब। न खाने का सुख, न पहनने का आराम। हमसे तो मजूर ही भले।

पंडितजी के पड़ोस में दो महाशय और रहते थे। एक ठाकुर अतिबलसिंह, वह थाने में हेड कान्सटेबल थे। दूसरे मुंशी बैजनाथ, वह तहसील में सियाहे-नवीस थे। इन दोनों आदमियों का वेतन पंडितजी से कुछ अधिक न था, तब भी उनकी चैन से गुजरती थी। संध्या को वह कचहरी से आते, बच्चों को पैसे और मिठाइयाँ देते। दोनों आदमियों के पास टहलुवे थे। घर में कुर्सियाँ, मेजें, फर्श आदि सामग्रियाँ मौजूद थीं। ठाकुर साहब शाम को आराम-कुर्सी पर लेट जाते और खुशबूदार खमीरा पीते। मुंशीजी को शराब-कवाब का व्यसन था। अपने सुसज्जित कमरे में बैठे हुए बोतल-की-बोतल साफ कर देते। जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते, सारे मुहल्ले में रोबदाब था। उन दोनों महाशयों को आता देखकर बनिये उठकर सलाम करते। उनके लिए बाजार में अलग भाव था। चार पैसे सेर की चीज टके में लाते। लकड़ी-ईंधन मुफ्त में मिलता।

पंडितजी उनके इस ठाट-बाट देखकर कुढ़ते और अपने भाग्य कोसते। वह लोग इतना भी न जानते थे कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अथवा सूर्य पृथ्वी का। साधारण पहाड़ों का भी ज्ञान न था, तिस पर भी ईश्वर ने उन्हें इतनी प्रभुता दे रखी थी। यह लोग पंडितजी पर बड़ी कृपा रखते थे। कभी सेर आध सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी-सी तरकारियाँ। किन्तु इनके बदले में पंडितजी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी करनी पड़ती। ठाकुर साहब कहते पंडितजी! यह लड़के हर घड़ी खेला करते हैं, जरा इनकी खबर लेते रहिए। मुंशीजी कहते–यह लड़के आवारा हुए जाते हैं। जरा इनका खयाल रखिए। यह बातें बड़ी अनुग्रहपूर्ण रीति से कही जाती थीं, मानो पंडितजी उनके गुलाम हैं। पंडितजी को यह व्यवहार असह्य लगता था, किन्तु इन लोगों को नाराज करने का साहस न कर सकते थे, उनकी बदौलत कभी-कभी दूध-दही के दर्शन हो जाते, कभी अचार-चटनी चख लेते। केवल इतना ही नहीं, बाजार से चीजें भी सस्ती लाते। इसलिए बेचारे इस अनीति को विष की घूँट के समान पीते।

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