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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


अकस्मात् एक मनुष्य नदी की तरफ से लालटेन लिये आता दिखाई दिया। वह निकट पहुँचा तो पंडितजी ने उसे देखा। आकृति कुछ पहचानी हुई मालूम हुई, किन्तु यह विचार न आया कि कहाँ देखा है। पास जाकर बोले–क्यों भाई साहब! यहाँ यात्रियों के रहने की जगह न मिलेगी? वह मनुष्य रुक गया। पंडितजी की ओर ध्यान से देखकर बोला–आप पंडित चन्द्रधर तो नहीं है?

पंडित प्रसन्न होकर बोले–जी हाँ। आप मुझे कैसे जानते हैं?

उस मनुष्य ने सादर पंडितजी के चरण छुए और बोला–मैं आपका पुराना शिष्य हूँ। मेरा नाम कृपाशंकर है। मेरे पिता कुछ दिनों बिल्हौर में डाक मुंशी रहे थे। उन्हीं दिनों मैं आपकी सेवा में पढ़ता था।

पंडितजी की स्मृति जागी। बोले–ओ हो, तुम्हीं हो कृपाशंकर। तब तो तुम दुबले-पतले लड़के थे, कोई आठ नौ साल हुए होगे।

कृपाशंकर–जी हाँ, नवाँ साल है। मैंने वहाँ से आकर इंट्रेंस पास किया। अब यहाँ म्युनिसिपैलिटी मंं नौकर हूँ। कहिए, आप तो अच्छी तरह रहे? सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गए।

पंडितजी–मुझे भी तुमसे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ। तुम्हारे पिता अब कहाँ हैं?

कृपाशंकर–उनका तो देहान्त हो गया। माताजी है। आप यहाँ कब आये?

पंडितजी–आज ही आया हूँ। पंडों के घर जगह न मिली! विवश हो यही रात काटने की ठहरी।

कृपाशंकर–बाल-बच्चे भी साथ हैं?

पंडितजी–नहीं, मैं तो अकेला ही आया हूँ, पर मेरे साथ दरोगाजी और सियाहेनवील साहब हैं–उनके बाल-बच्चे भी साथ हैं।

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