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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


जयराम–कहीं मैं अकेला तो न फसूंगा?

जगतसिंह–अकेले कौन फँसेगा, सबके सब साथ चलेंगे।

जयराम–अगर बाजबहादुर मरा नहीं है, तो उठकर सीधे मुंशीजी के पास जाएगा!

जगतसिंह–और मुंशीजी कल हम लोगों की खाल अवश्य उधेड़ेंगे।

जयराम–इसलिए मेरा सलाह है कि कल से मदरसे जाओ ही नहीं। नाम कटा के दूसरी जगह चले चलें, नहीं तो बीमारी का बहाना करके बैठे रहें। महीने-दो-महीने के बाद जब मामला ठंडा पड़ जाएगा, तो देखा जाएगा।

शिवराम–और जो परीक्षा होनेवाली है?

जयराम–ओ हो! इसका तो खयाल ही न था। एक ही महीना तो और रह गया है।

जगतसिंह–तुम्हें अबकी जरूर वजीफा मिलता।

जयराम–हां, मैंने बहुत परिश्रम किया था। तो फिर?

जगतसिंह–कुछ नहीं, तरक्की तो हो ही जाएगी। वजीफे से हाथ धोना पड़ेगा।

जयराम–बाजबहादुर के हाथ लग जाएगा।

जगतसिंह–बहुत अच्छा होगा, बेचारे ने मार भी तो खायी है।

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