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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


शहर के रईसों ने गवाही दी, सुनी-सुनाई बातें जिरह में उखड़ गई।

दूसरे दिन फिर मुकदमा पेश हुआ।

प्रतिवादी के वकील ने अपनी वक्तृता शुरू की। उसमें गंभीर विचारों की अपेक्षा हास्य का आधिक्य था–यह एक विलक्षण न्याय-सिद्धान्त है कि किसी धनाढ्य मनुष्य का नौकर जो कुछ खरीदे, उसके स्वामी की चीज समझी जाए। इस सिद्धान्त के अनुसार हमारी गवर्नमेंट को अपने कर्मचारियों की सारी संपत्ति पर कब्जा कर लेना चाहिए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपत्ति नहीं कि हम इतने रुपयों का प्रबंध न कर सकते थे। और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण लिया। पर हमसे ऋण चुकाने कोई तकाजा न करके वह जायदाद ही माँगी जाती है। यदि हिसाब के कागजात दिखलाए जाए तो यह साफ बता देंगे कि मैं सारा ऋण दे चुका। हमारे मित्र ने कहा है कि ऐसी अवस्था में बहियों का गुम हो जाना अदालत के लिए एक सबूत होना चाहिए। मैं भी उनकी उक्ति का समर्थन करता हूँ। यदि मैं आपसे ऋण लेकर अपना विवाह करूं। तो क्या आप मुझसे मेरी नवविवाहिता वधू को छीन लेंगे?

हमारे सुयोग्य मित्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया है। अगर मुंशी सत्यनारायण की नीयत खराब होती, तो उनके लिए सबसे अच्छा अवसर वह था, जब पंडित भृगुदत्त का स्वर्गवास हुआ। इतने विलंब की क्या जरूरत थी? यदि आप शेर को फँसाकर उसके बच्चे को उसी वक्त नहीं पकड़ लेते, उसे बढ़ने और सबल होने का अवसर देते है, तो मैं आपकों बुद्धिमान न कहूँगा। यथार्थ बात यह है कि मुंशी सत्यनारायण ने नमक का जो कुछ हक था, वह पूरा कर दिया। आठ वर्ष तक तन-मन से स्वामी-संतान की सेवा की। आज उन्हें अपनी साधुता का फल मिल रहा है, वह बहुत ही दुःखजनक और हृदय-विदारक है। इसमें भानुकुँवरि का कोई दोष नहीं। ये एक गुण सम्पन्न महिला है। मगर अपनी जाति के अवगुण उनमें भी विद्यमान है। ईमानदार मनुष्य स्वाभावतः स्पष्टभावी होता है, उसे अपनी बातों में नमक-मिर्च लगाने की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि मुंशी के मृदुभाषी मातहतों को उन पर आक्षेप करने का मौका मिल गया है। इस दावे की जड़ केवल इतनी है और कुछ नहीं। भानुकुँवरि यहाँ उपस्थित हैं। क्या वह कह सकती हैं कि आठ वर्ष की मुद्दत में कभी इस गाँव का जिक्र उनके सामने आया? कभी उसके हानि लाभ आय-व्यय, लेन-देन की चर्चा उनसे की गई? मान लीजिए कि मैं गवर्नमेंट का मुलाजिम हूँ। यदि आज दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने टहलुओं के टैक्सों का पचड़ा गाने लगूँ, तो क्या शायद मुझे शीघ्र ही अपने पद से पृथक होना पड़े। और संभव है कुछ दिनों आगरे की विशाल अतिथिशाला में रखा जाऊँ। जिस गाँव से भानुकुँवरि को कोई सरोकार न था, उसकी चर्चा उनसे क्यों की जाती?

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