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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


यह कहकर वह महात्मा अदृश्य हो गए। मैंने भी अपनी गठरी बाँधी और अर्द्ध रात्रि के सन्नाटे में चोरों की भाँति कमरे से बाहर निकला। शीतल आनंदमय समीर चल रहा था, सामने के सागर में तारे छिटक रहे थे, मेहंदी की सुगंधि उड़ रही थी। मैं चलने को तो चला, पर संसार-सुख-भोग का ऐसा सुअवसर छोड़ते हुए दुःख होता था। इतना देखने और महात्मा के उपदेश सुनने पर भी चित्त उस रमणी की ओर खिंचता था। मैं कई बार चला, कई बार लौटा, पर अंत में आत्मा ने इंद्रियों पर विजय पायी। मैंने सीधा मार्ग छोड़ दिया और झील किनारे-किनारे गिरता-पड़ा, कीचड़ में फँसता हुआ सड़क तक आ पहुँचा। यहाँ आकर मुझे एक विचित्र उल्लास हुआ, मानो कोई चिड़िया बाज के चंगुल से छूट गई हो।

यद्यपि मैं एक मास के बाद लौटा था, पर अब जो देखा, तो अपनी चारपाई पर पड़ा हुआ था। कमरे में जरा भी गर्द या धूल न थी। मैंने लोगों से इस घटना की चर्चा की, तो लोग खूब हँसे और मित्रगण तो अभी तक मुझे ‘प्राइवेट सेक्रेटरी’ कहकर बनाया करते हैं। सभी कहते हैं कि मैं एक मिनट के लिए भी कमरे से बाहर नहीं निकला, महीने-भर गायब रहने की तो बात ही क्या? इसलिए अब मुझे भी विवश होकर यही कहना पड़ता है कि शायद मैंने कोई स्वप्न देखा है। कुछ-भी हो, परमात्मा को कोटि-कोटि धन्यावाद देता हूं कि मैं उस पापकुंड से बचकर निकल आया। वह चाहे स्वप्न ही हो, पर मैं उसे अपने जीवन का एक वास्तविक अनुभव समझता हूँ, क्योंकि उसने सदैव के लिए मेरी आँखें खोल दीं।

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