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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


परन्तु रुद्र को पाकर इस सूखी टहनी में जान पड़ गई थी। इसमें हरी भरी पत्तियाँ निकल आई थीं। जीवन जो अब तक नीरस और शुष्क था, अब सरस और सजीव हो गया था। अँधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी थी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं, बल्कि सार्थक हो गया था।

कैलासी रुद्र की भोली-भाली बातों पर निछावर हो गई। पर वह अपना स्नेह सुखदा से छिपाती थी। इसीलिए कि माँ के हृदय में द्वेष न हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिपा कर मिठाइयाँ लाती और उसे खिलाकर प्रसन्न होती। वह दिन में दो-तीन बार उसे उबटन मलती कि बच्चा खूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज नहीं खिलाती कि उसे नजर लग जाएगी। सदा वह दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नजर से बचाने के लिए ताबीज और गंडे लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमें स्वार्थ की गंध भी न थी।

इस घर से निकलकर आज कैलासी की वह दशा थी, जो थिएटर में यकायक बिजली के लैम्पों के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारी-प्यारी बातें गूँज रही थीं। उसे अपना घर काटे खाता था। उस काल-कोठरी में दम घुटा जाता था।

रात ज्यों-ज्यों कर कटी। सुबह को वह घर में झाड़ू लगा रही थी। यकायक बाहर ताजे हलुवे की आवाज सुनकर बड़ी फुर्ती से बाहर निकल आई। तब तक याद आ गया, आज हलवा कौन खाएगा? आज गोद मैं बैठ कर कौन चहकेगा? वह मधुर गान सुनने के लिए, जो हलुवा खाते समय रुद्र की आँखों से, होंठो से और शरीर के एक-एक अंग से बरसता था, कैलासी का हृदय तड़प गया। वह व्याकुल होकर घर से बाहर निकली कि चल रुद्र को देख आऊँ। पर आधे रास्ते से लौट गयी।

रुद्र कैलासी के ध्यान से एक क्षण-भर के लिए भी नहीं उतरता था। वह सोते-सोते चौंक पड़ती, जान पड़ता, रुद्र डंडे का घोड़ा दबाए चला आता है। पड़ोसिनों के पास जाती, तो रुद्र ही की चर्चा करती। रुद्र उसके दिल और जान में बसा हुआ था। सुखदा के कठोरतापूर्ण व्यवहार का उसके हृदय में ध्यान नहीं था। वह रोज इरादा करती थी कि आज रुद्र को देखने चलूँगी। उसके लिए बाजार से मिठाइयाँ और खिलौने लाती! घर से चलती, पर रास्ते से लौट आती। कभी दो-चार कदम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौन मुँह लेकर जाऊँ? जो प्रेम को धूर्तता समझता हो, उसे कौन-सा मुँह दिखाऊँ? कभी सोचती, यदि रुद्र मुझे न पहचाने तो? बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या? नई दाई से हिल-मिल गया होगा। यह खयाल उसके पैरों पर जंजीर का काम कर जाता था।

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