कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
बहूजी पर घड़ों पानी पड़ गया। जी चाहता था कि धरती फट जाती, तो उसमें समा जाती, स्त्रियां स्वभावतः लज्जा की मूर्ति होती हैं। उनमें आत्माभिमान की मात्रा अधिक होती है। निंदा और अपमान उनसे सहन नहीं हो सकता। सिर झुकाए हुए बोली–बुआ! मैं इन बातों को क्या जानूँ? मैंने तो आज ही तुम्हारे मुँह से सुनी है। कौन-सी तरकारियाँ हैं?
मुंशी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे हुए कुँजड़िन की बातें सुन रहे थे। उसके चले जाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे–यह शैतान की खाला क्या कह रही थी?
स्त्री ने पति की ओर से मुँह फेर लिया और जमीन की ओर ताकते हुए बोली–क्या तुमने नहीं सुना? तुम्हारा गुणगान कर रही थी। तुम्हारे पीछे देखो, किस-किसके मुँह से ये बातें सुननी पड़ती हैं और किस-किससे मुँह छिपाना पड़ता है!
मुंशीजी अपने कमरे में लौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीं दिया। आत्मा लज्जा से परास्त हो गई। जो मनुष्य सदैव सर्वसम्मानित रहता हो, जो सदा आत्माभिमान से सिर उठाकर चलता रहा हो, जिसकी सुकृति पर सारे शहर में चर्चा होती रही हो, वह कभी सर्वथा लज्जाशून्य नहीं हो सकता। लज्जा कुपथ की सबसे बड़ी शत्रु है। कुवासनाओं के भ्रम में पड़कर मुंशीजी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसे गुप्त रीति से पूरा कर ले जाऊँगा कि किसी को कानों-कान खबर न होगी। पर उनका यह मनोरथ सिद्ध न हुआ। बाधाएँ आ खड़ी हुईं। उनके हटाने में बड़े दुस्साहस से काम लेना पड़ा। पर यह भी उन्होंने लज्जा से बचने के निमित्त किया, जिसमें कोई यह न कहे कि अपनी स्वामिनी को धोखा दिया। इतना यत्न करने पर भी वह निंदा से न बच सके। बाज़ार की सौदा बेचनेवालियाँ भी अब उनका अपमान करती हैं।
कुवासनाओं से दबी हुई लज्जा-शक्ति इस कड़ी चोट को सहन न कर सकी। मुंशीजी सोचने लगे, अब मुझे धन सम्पत्ति मिल जायगी, ऐश्वर्यवान हो जाऊँगा; परन्तु निन्दा से मेरा पीछा नहीं छूटेगा। अदालत का फैसला मुझे लोक निन्दा से न बचा सकेगा। ऐश्वर्य का फल क्या है? मान और मर्यादा। उससे हाथ धो बैठा, तो इस ऐश्वर्य को लेकर क्या करूँगा? चित्त की शक्ति खोकर, लोक-लज्जा सहकर, जन-समुदाय में नीच बनकर और अपने घर में कलह का बीज बोकर यह सम्पत्ति मेरे किस काम आएगी? और यदि वास्तव में कोई न्याय शक्ति हो और वह मुझे इस दुष्कृत्य का दंड दे, तो मेरे लिए सिवाय मुँह में कालिख लगाकर निकल जाने के और कोई मार्ग न रहेगा। सत्यवादी मनुष्य पर कोई विपत्ति पड़ती है, तो लोग उसके साथ सहानुभूति करते हैं। दुष्टों की विपत्ति लोगों के लिए व्यंग्य की सामग्री बन जाती है। उस अवस्था में ईश्वर अन्यायी ठहराया जाता है; मगर दुष्टों की विपत्ति ईश्वर के न्याय को सिद्ध करती है। परमात्मा इस दुर्दशा से किसी तरह मेरा उद्घार करो! क्यों न जाकर मैं भानुकुँवरि के पैरों पर गिर पड़ू और विनय करूँ कि यह मुकदमा उठा लो? शोक! पहले यह बात मुझे न सूझी? अगर कल तक मैं उनके पास चला गया होता, तो सब बात बन जाती। पर क्या हो सकता है? आज तो फैसला सुनाया जायगा।
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