कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
बाँका गुमान खड़ा-खड़ा बात सुनता रहा, लेकिन पत्थर का देवता था–कभी न पसीजता। इन महाशय के अत्याचार का दण्ड उनकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। कड़ी मेहनत के घर में जितने काम होते, वह उसी के सिर थोपे जाते। उपले पाथती, कुएँ से पानी लाती, आटा पीसती और इतने पर भी जेठानियाँ सीधे मुँह बात न करतीं, वाक्य-बाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रूठी रही, तो बाँके गुमान कुछ नर्म हुए। बाप से जाकर बोले–मुझे कोई दुकान खुलवा दीजिए। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया। फूले न समाए। कई सौ रुपये लगाकर कपड़े की दूकान खुलवा दी। गुमान के भाग जागे। तनजेब के चुननदार कुरते बनवाए, मलमल का साफा धानी रंग में रँगवाया। सौदा बिके या न बिके उसे लाभ ही होता था। दूकान खुली है, दस-पाँच गाढ़े मित्र जमें हुए है, चरस के दम और खयाल की तानें उड़ रही हैं–
‘चल झटपट री, जमुना तट री, उड़ी नटखट री।’
इस तरह तीन महीने चैन से कटे। बाके गुमान ने खूब दिल खोलकर अरमान निकाले। यहां तक कि सारी लागत लाभ हो गई। टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा। बूढ़े चौधरी कुएँ में गिरने चले, भावजों ने घोर आन्दोलन मचाया–अरे राम! हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढ़े का एक कुर्ता भी न नसीब हो और इतनी बड़ी दूकान निखट्टू का कफन बन गई। अब कौन मुँह लेकर घर में पैर रखेगा? किन्तु बाँके गुमान के तीवर जरा भी मैले न हुए। वही मुँह लिये वह घर में आया और फिर वहीं पुरानी चाल चलने लगा।
कानूनदाँ बितान उसके यह ठाट-बाट देखकर जल जाता। मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ मुझे नयनसुख का कुर्ता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े और यों बन-ठनकर निकले। ऐसे वस्त्र तो शायद मुझे ब्याह में भी न मिले होंगें। मीठे शान के हृदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे। अन्त में जब यह जलन न सही गई और अग्नि भड़की, तो एक दिन कानूनदां बितान की पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा लायी और उन पर मिट्टी का तेल उड़ेलकर आग लगा दी। ज्वाला उठी। सारे कपड़े देखते-देखते जलकर राख हो गए। गुमान रोते थे। दोनों भाई खड़े तमाशा देखते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि है घर को जलाकर तब बुझेगी।
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