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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


इस पर कई ठाकुर लाल-लाल आँखें निकालकर बोले–ठाकुराइन! बिरादरी की तो खूब मर्यादा करती हो। लड़का चाहे किसी रास्ते पर जाए, लेकिन बिरादरी चूं तक न करे? ऐसी बिरादरी कहीं और होगी! हम साफ-साफ कहे देते हैं कि अगर यह लड़का तुम्हारे घर में रहा, तो बिरादरी भी बता देगी कि वह क्या कर सकती है।

जगतसिंह कभी-कभी जादोराय से रुपये उधार लिया करते थे। मधुर स्वर से बोले–भाभी! बिरादरी यह थोड़े ही कहती है कि तुम लड़के को घर से निकाल दो। लड़का इतने दिनों के बाद घर आया है तो हमारे सिर आँखों पर रहे बस, जरा खाने-पीने और छूत-छात का बचाव बना रहना चाहिए। बोलो जादो भाई! अब बिरादरी को कहां तक दबाना चाहते हो?

जादोराय ने साधो की तरफ करुणा भरे नेत्रों से देखकर कहा–बेटा, जहाँ तुमने हमारे साथ इतना सलूक किया है, वहाँ जगत भाई की इतनी कहा और मान लो!

साधो ने कुछ तीक्ष्ण शब्दों में कहा–क्या मान लूँ? यह कि अपनों में गैर बनकर रहूँ, अपमान सहूँ; मिट्टी का घड़ा भी मेरे छूने से अशुद्ध हो जाय! न, यह मेरा किया न होगा, इतनी निर्लज्ज नहीं!

जादोराय को पुत्र की यह कठोरता अप्रिय मालूम हुई। वे चाहते थे कि इस वक्त बिरादरी के लोग जमा हैं, उनके सामने किसी तरह समझौता हो जाय, फिर कौन देखता है कि हम उसे किस तरह रखते हैं? चिढ़कर बोले–इतनी बात तो तुम्हें माननी ही पड़ेगी।

साधोराय इस रहस्य को न समझ सका। बाप की इस बात में उसे निष्ठुरता की झलक दिखाई पड़ी। बोला–मैं आपका लड़का हूँ। आपके लड़के की तरह रहूँगा। आपके भक्ति और प्रेम की प्रेरणा मुझे यहाँ तक लायी है। मैं अपने घर में रहने आया हूँ अगर यह नहीं है तो इसके सिवा मेरे लिए इसके और कोई उपाय नहीं है कि जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से भाग जाऊँ। जिनका खून सफेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है।

देवकी ने रोकर कहा–लल्लू मैं अब तुम्हें न जाने दूँगी।

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