लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

358 पाठक हैं

मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


आधी रात का समय था। मुंशीजी नित्य नियम के अनुसार अपनी चिंता दूर करने के लिए शराब के दो-चार घूँट पीकर सो गए थे। यकायक मूँगा ने उनके दरवाजे पर आकर जोर से हाँक लगायी, ‘तेरा लहू पीऊँगी’ और खूब खिलखिलाकर हँसी।

मुंशीजी यह भयावना ठहाका सुनकर चौंक पड़े। डर के मारे पैर थर-थर काँपने लगे। कलेजा धक-धक करने लगा। दिल पर बहुत जोर डाल कर उन्होंने दरवाजा खोला, जाकर नागिन को जगाया। नागिन ने झुँझलाकर कहा–क्या है; क्या कहते हो?

मुंशीजी ने दबी आवाज से कहा–वह दरवाजे पर खड़ी है।

नागिन उठ बैठी–क्या कहती है?

‘तुम्हारा सिर।’

‘क्या दरवाजे पर आ गई?’

‘हाँ, आवाज नहीं सुनती हो।’

नागिन मूँगा से नहीं, परन्तु उसके ध्यान से बहुत डरती थी, तो भी उसे विश्वास था कि मैं बोलने में उसे जरूर नीचा दिखा सकती हूँ। सँभलकर बोली–कहो तो मैं उससे दो-दो बातें कर लूं? परंतु मुंशीजी ने मना किया।

दोनों आदमी पैर दबाए ड्योढ़ी में गये और दरवाजे से झाँककर देखा, मूँगा की धुँधली मूरत धरती पर पड़ी थी और उसकी साँस तेजी से चलती हुई सुनाई देती थी। रामसेवक के लहू मांस की भूख में वह अपना लहू और मांस सुखा चुकी थी। एक बच्चा भी उसे गिरा सकता था। परंतु उससे सारा गाँव थर-थर काँपता था। हम जीते मनुष्य से नहीं डरते, पर मुर्दे से डरते हैं। रात गुजरी। दरवाजा बंद था, पर मुंशीजी और नागिन ने बैठकर रात काटी, मूँगा भीतर नहीं घुस सकती थी, पर उसकी आवाज को कौन रोक सकता था मूंगा से अधिक डरावनी उसकी आवाज थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book