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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


माधव ने सोचा, यदि मेरे पास कुछ लिखाने-पढ़ाने को होता, तो क्या और महाजन मर गए थे, तुम्हारे दरवाजे क्यों आता? बोला–लिखने-पढ़ने को मेरे पास है ही क्या? जो कुछ जगह-जायदाद है, वह यही घर है।

केदार और चम्पा ने एक दूसरे को मर्मभेदी नयनों से देखा और मन-ही-मन कहा–क्या आज सचमुच जीवन की प्यारी अभिलाषाएँ पूरी होंगी? परंतु हृदय की यह उमंग मुँह तक आते-आते गंभीर रूप धारण कर गई। चंपा बड़ी गंभीरता से बोली–घर पर तो कोई महाजन कदाचित ही रुपया दे। शहर हो तो कुछ किराया ही आवे, पर गँवई में तो कोई सेंत में रहने वाला भी नहीं। फिर साझे की चीज ठहरी।

केदार डरे कि कहीं चंपा की कठोरता से खेल बिगड़ न जाय। बोले–एक महाजन से मेरी जान-पहचान है, वह कदाचित कहने-सुनने में आ जाय।

चम्पा ने गर्दन हिलाकर इस युक्ति की सराहना की और बोली–पर दो-तीन बीसी से अधिक मिलना कठिन है।

केदार ने जान पर खेलकर कहा–अरे, बहुत दबाने से चार बीसी हो जाएँगे और क्या?

अबकी चम्पा ने तीव्र दृष्टि से केदार को देखा और अनमनी–सी होकर बोली–महाजन ऐसे अंधे नहीं होते।

माधव अपने भाई-भावज के इस गुप्त रहस्य को कुछ-कुछ समझता था। वह चकित था कि इतनी बुद्धि कहाँ से मिल गई। बोला–और रुपये कहाँ से आएँगे।

चम्पा चिढ़कर बोली–और रुपयों के लिए और फिक्र करो। सवा सौ रुपये इन दो कोठरियों के इस जन्म में कोई न देगा। चार बीसी चाहो, तो एक महाजन से दिला दूँ, लिखा-पढ़ी कर लो।

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