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कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


कुर्की का नोटिस पहुँचा, तो चौधरी के हाथ-पाँव फूल गए। सारी चतुराई भूल गई। चुपचाप अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा नदी की ओर ताकता और मन में कहता–क्या मेरे जीते ही जी घर मिट्टी में मिल जाएगा? मेरे इन बैलों की सुन्दर जोड़ी के गले में आह! क्या दूसरों का जुआ पड़ेगा? यह सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आती। वह बैलों से लिपट कर रोने लगता, परन्तु बैलों की आँखों में क्यों आँसू जारी थे! वे नाँद में मुँह क्यों नहीं डालते! क्या उनके हृदय पर भी अपने स्वामी के दुःख की चोट पहुँच रही थी?

फिर वह अपने झोंपड़े को विकल नयनों से निहारकर देखता और मन में सोचता–क्या हमको इस घर से निकलना पड़ेगा? यह पूर्वजों की निशानी क्या हमारे जीते-जी छिन जाएगी?

कुछ लोग परीक्षा में दृढ़ रहते हैं और कुछ लोग इसकी हलकी आँच भी नहीं सह सकते। चौधरी अपनी खाट पर उदास पड़े-पड़े घंटों अपने कुलदेव महावीर और महादेव को मनाया करता और उनका गुण गाया करता। उसकी चिन्ता दग्ध आत्मा को और कोई सहारा न था।

इसमें कोई संदेह न था कि चौधरी की तीन बहुओं के पास गहने थे, पर स्त्री का गहना ऊख का रस है, जो पेरने से ही निकलता है। चौधरी जाति का ओछा, पर स्वभाव का ऊंचा था। उसे ऐसी नीच बात बहुओं से कहते संकोच होता था! कदाचित् यह नीच विचार उसके हृदय में उत्पन्न ही नहीं हुआ था, किन्तु तीनों बेटे यदि जरा भी बुद्धि से काम लेते, तो बूढ़े को देवताओं की शरण लेने की आवश्यकता न होती। परन्तु यहाँ तो बात ही निराली थी। बड़े लड़के को घाट के काम से फुरसत न थी। बाकी दो लड़के इस जटिल प्रश्न को विचित्र रूप से हल करने के मंसूबे बाँध रहे थे।

मझले झींगुर ने मुँह बनाकर कहा–ऊँह! इस गाँव में क्या धरा है। जहाँ भी कमाऊंगा, वही खाऊँगा। पर जीतनसिंह की मूँछे एक-एक करके चुन लूँगा।

छोटे फक्कड़ ऐंठकर बोले–मूँछे तुम चुन लेना। नाक मैं उड़ा दूँगा। नककटा बना घूमेगा।

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