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प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8586
आईएसबीएन :978-1-61301-114

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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ


रूपचंद तो विचार-तरंगों में निमग्न था। उसके वकील ने कामिनी से जिरह करनी प्रारम्भ की।

वकील–क्या तुम सत्यनिष्ठा के साथ कह सकती हो कि रूपचंद तुम्हारे मकान पर अक्सर नहीं जाया करता था?

कामिनी–मैंने कभी उसे अपने घर पर नहीं देखा।

वकील–क्या तुम शपथपूर्वक कह सकती हो कि तुम उसके साथ कभी थियेटर देखने नहीं गयीं?

कामिनी–मैंने उसे कभी नहीं देखा।

वकील–क्या तुम शपथ लेकर कह सकती हो कि तुमने उसे प्रेम-पत्र नहीं लिखे?

शिकार के चंगुल में फँसे हुए पक्षी की तरह पत्र का नाम सुनते ही कामिनी के होश-हवाश उड़ गए, हाथ-पैर फूल गए। मुँह न खुल सका। जज ने, वकील ने और दो सहस्र आँखों ने उसकी तरफ उत्सुक्ता से देखा।

रूपचंद का मुँह खिल गया। उसके हृदय में आशा का उदय हुआ। जहाँ फूल था, वहाँ काँटा पैदा हुआ। मन में कहने लगा–कुलटा कामिनी! अपने सुख और अपने कपट, मान-प्रतिष्ठा पर मेरे परिवार की हत्या करने वाली कामिनी! तू अब भी मेरे हाथ में है। मैं अब भी तुझे इस कृतघ्नता और कपट का दंड दे सकता हूँ। तेरे पत्र, जिन्हें तूने सत्य हृदय से लिखा या नहीं, मालूम नहीं, परंतु जो मेरे हृदय के ताप को शीतल करने के लिए मोहिनी मंत्र थे, वह सब मेरे पास हैं और वह इसी समय तेरा सब भेद खोल देंगे। इस क्रोध से उन्मत्त होकर रूपचंद ने अपने कोट के पाकेट में हाथ डाला। जज ने, वकीलों ने और दो सहस्र नेत्रों ने उसकी तरफ चातक की भाँति देखा।

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