कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
उस गुफा में पल-भर भी ठहरना अत्यन्त शंकाप्रद था। न जाने कब डाकू फिर सशस्त्र होकर आ जाएँ। उधर चिताग्नि भी शांत होने लगी, और उस सती की भीषण काया अत्यन्त तेजमय रूप धारण करके हमारे नेत्रों के सामने तांडव-क्रीड़ा करने लगी। मैं बड़ी चिंता में पड़ी कि इन दोनों प्राणियों को कैसे वहाँ से निकालूँ। दोनों ही जख्मों से चूर थे। शेरसिंह ने मेरे असमंजस को ताड़ लिया। रूपान्तर हो जाने के बाद उनकी बुद्धि बड़ी तीव्र हो गई थी। उन्होंने मुझे संकेत किया कि दोनों को हमारी पीठ पर बिठा दो। पहले तो मैं उनका आशय न समझी, पर जब उन्होंने संकेत को बार-बार दुहराया, तो मैं समझ गई। गूँगों के घरवाले ही गूँगों की बातें खूब समझते हैं। मैंने पंडित श्रीधर को गोद में उठाकर शेरसिंह की पीठ पर बिठा दिया। उनके पीछे विद्याधरी को भी बिठाया। नन्हा बालक भालू की पीठ पर बैठकर जितना डरता है, उससे कहीं ज्यादा ये दोनों प्राणी भयभीत हो रहे थे। चिताग्नि के क्षीण प्रकाश में उनके भय-विकृति मुख देखकर करुण विनोद होता था। मैं इन दोनों प्राणियों को साथ लेकर गुफा से निकली, और फिर उसी तिमिर-सागर को पार करके मंदिर आ पहुँची।
मैंने एक सप्ताह तक उनका यथाशक्ति सेवा-सत्कार किया। जब वे भली भाँति स्वस्थ हो गए, तो मैंने उन्हें विदा किया। ये स्त्री-पुरुष कई आदमियों के साथ टेढ़ी जा रहे थे। वहाँ के राजा पंडित श्रीधर के शिष्य हैं। पंडित श्रीधर का घोड़ा आगे था। विद्याधरी सवार का अभ्यास न होने के कारण पीछे थी। उनके दोनों रक्षक भी उनके साथ थे। जब डाकुओं ने पंडित श्रीधर को घेरा और पंडित ने पिस्तौल से डाकू सरदार को गिराया, तो कोलाहल सुनकर विद्याधरी ने घोड़ा बढ़ाया। दोनों रक्षक तो जान लेकर भागे, विद्याधरी को डाकुओं ने पुरुष समझकर घायल कर दिया, और तब दोनों प्राणियों को बाँधकर गुफा में डाल दिया। शेष बातें मैंने अपनी आँखों देखीं। यद्यपि यहाँ से विदा होते समय विद्याधरी का रोम-रोम मुझे आशीर्वाद दे रहा था, पर हा! अभी प्रायश्चित पूरा न हुआ था। इतना आत्मसमर्पण करके भी मैं सफल-मनोरथ न हुई थी।
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