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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


पाठक, उस सुन्दरी का जीवन-वृत्तांत सुनकर मुझे जितना कुतूहल हुआ, वह अकथनीय है। खेद है, जिस जाति में ऐसी प्रतिभाशालिनी देवियाँ उत्पन्न हों, उस पर पाश्चात्य के कल्पनाहीन, विश्वासहीन पुरुष उँगलियाँ उठावें! समस्त योरप में एक भी ऐसी सुन्दरी न होगी, जिससे इसकी तुलना की जा सके। हमने स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को सांसारिक सम्बन्ध समझ रखा है। उसका आध्यात्मिक रूप हमारे विचार से कोसों दूर है। यही कारण है कि हमारे देश में शताब्दियों की उन्नति के पश्चात् भी पातिव्रत का ऐसा उज्जवल और अलौकिक उदाहरण नहीं मिल सकता। दुर्भाग्य से हमारी सभ्यता ने ऐसा मार्ग ग्रहण किया है कि कदाचित् दूर-भविष्य में भी ऐसी देवियों के जन्म लेने की सम्भावना नहीं जर्मनी को यदि अपनी सेना पर, फ्रांस को, अपनी विलासिता पर और इंगलैण्ड को अपने वाणिज्य पर गर्व है, तो भारतवर्ष को अपने पातिव्रत का घमण्ड है। क्या योरप-निवासियों के लिए यह लज्जा की बात नहीं कि होमर और वर्जिल, दाँते और गेटे, शेक्सपियर और ह्यूगो जैसे उच्चकोटि के कवि एक भी सीता या सावित्री की रचना न कर सके। वास्तव में योरपीय समाज ऐसे आदर्शों से वंचित है!

मैंने दूसरे दिन ज्ञानसरोवर से बड़ी अनिच्छा के साथ विदा माँगी, और योरप को चला। मेरे लौटने का समाचार पहले ही प्रकाशित हो चुका था। जब मेरा जहाज हैंपबर्ग के बन्दर में पहुँचा, तो सहस्रों नर-नारी मेरा अभिवादन करने के लिए खड़े थे। मुझे देखते ही तालियाँ बजने लगीं, रूमाल और टोप हवा में उछलने लगे, और वहाँ से मेरे घर तक जिस समारोह से मेरा जलूस निकला, उस पर किसी राष्ट्रपति को भी गर्व हो सकता है। संध्या-समय मुझे कैसर की मेज पर भोजन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कई दिनों तक अभिनंदन–पत्रों का ताँता लगा रहा, और महीनों क्लब और युनिवर्सिटी की फर्माइशों से दम मारने का अवकाश न मिला। मेरा यात्रा-वृत्तांत देश के प्रायः सभी पत्रों में छपा। अन्य देशों से भी बधाई के तार और पत्र मिले। फ्रांस, रूस आदि देशों कि कितनी ही सभाओं ने मुझे व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया। एक-एक वक्तृता के लिए मुझे कई-कई हजार पौंड दिये जाते थे। कई विद्यालयों ने मुझे कई उपाधियाँ दीं। जार ने अपना आटोग्राफ भेजकर सम्मानित किया, किन्तु इन आदर और सम्मान की आँधिओं से मेरे चित्त को शांति न मिलती थी, और ज्ञानसागर का सुरम्य तट, वह गहरी गुफा और वह मृदुभाषिणी रमणी सदैव आँखों के सामने फिरते रहते थे। रमणी के मधुर शब्द कानों में गूँजा करते। मैं थिएटरों में जाता और स्पेन और जार्जिया की सुन्दरियों को देखता, किन्तु हिमालय की अप्सरा मेरे ध्यान से न उतरती। कभी-कभी कल्पना में मुझे वह देवी आकाश से उतरती हुई मालूम होती। तब चित्त चंचल हो जाता, और विकल उत्कंठा होती कि किसी तरह पर लगाकर ज्ञानसागर के तट पर पहुँच जाऊँ। आखिर एक रोज मैंने सफर का सामान दुरुस्त किया, और उस मिती के ठीक एक हजार दिनों के बाद, जब मैंने पहली बार ज्ञानसागर के तट पर कदम रखा था, मैं फिर वहाँ जा पहुँचा।

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