कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
तीन दिन बीत गए। इन तीन दिनों में खूब मालूम हो गया कि पूर्व को आतिथ्य-कुशल क्यों कहते हैं। योरप का कोई दूसरा मनुष्य, जो यहाँ की सभ्यता से परिचित न हो, इन सत्कारों से ऊब जाता। किन्तु मुझे इन देशों के रहन-सहन का बहुत अनुभव हो चुका है, और मैं इसका आदर करता हूँ।
चौथे दिन मेरी विनय पर रानी प्रियंवदा ने अपनी शेष कथा सुनानी शुरू की–ऐ मुसाफिर, मैंने तुझसे कहा था कि अपनी रियासत का शासन-भार मैंने श्रीधर पर रख दिया था, और जितनी योग्यता और दूरदर्शिता से उन्होंने इस काम को सँभाला है, उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। ऐसा बहुत कम हुआ है कि एक विद्वान पंडित, जिसका सारा जीवन पठन-पाठन में व्यतीत हुआ हो, एक रियासत का बोझ सँभाले। किन्तु राजा बीरबल की भाँति पं. श्रीधर भी सब कुछ कर सकते हैं। मैंने परीक्षार्थ उन्हें यह काम सौंपा था। अनुभव ने सिद्ध कर दिया कि वह इस कार्य के सर्वथा योग्य हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो कुलपरम्परा ने उन्हें इस कार्य में अभ्यस्त कर दिया है। जिस समय उन्होंने इसका काम अपने हाथ में लिया, यह रियासत एक ऊजड़ ग्राम के सदृश्य थी। अब वह धन-धान्य-पूर्ण एक नगर है। शासन का कोई ऐसा विभाग नहीं, जिस पर उनकी सूक्ष्म दृष्टि न पहुँची हो।
थोड़े ही दिनों में लोग उनके शील-स्वभाव पर मुग्ध हो गए। राजा रणधीरसिंह भी उन पर कृपा-दृष्टि रखने लगे। पंडितजी पहले शहर से बाहर एक ठाकुरद्वारे में रहते थे, किन्तु जब राजा साहब से मेल-जोल बढ़ा तो उनके आग्रह से विवश होकर राजमहल में चले आए। यहाँ तक परस्पर मैत्री और घनिष्ठता बढ़ी कि मान-प्रतिष्ठा का विचार भी जाता रहा। राजा साहब पंडितजी से संस्कृत भी पढ़ते थे। उनके समय का अधिकांश भाग पंडितजी के मकान पर ही कटता था। किन्तु शोक! यह विद्या-प्रेम या शुद्ध मित्र-भाव का आकर्षण न था। यह सौंदर्य का आकर्षण था। यदि उस समय मुझे लेश-भाव भी संदेह होता कि रणधीरसिंह की घनिष्ठता कुछ और ही पहलू लिये हुए है, तो उसका अंत इतना खेदजनक न होता, जितना कि हुआ। उनकी दृष्टि विद्याधरी पर उस समय पड़ी जब वह ठाकुरद्वारे में रहती थी। राजा साहब स्वभावताः बड़े ही सच्चरित्र और संयमी पुरुष हैं, किन्तु जिस रूप ने मेरे पति-जैसे देव-पुरुष का ईमान डिगा दिया, वह सब कुछ कर सकता है।
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