कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
सहसा लौंडी ने आकर सूचना दी कि पंडित जी आ गए। यह सुनते ही विद्याधरी लपककर उठी, किन्तु पति के दर्शनों की उत्सुकता उसे द्वार की ओर न ले गयी। उसने बड़ी फुर्ती से सन्दूकची खोली, कंगन निकालकर पहना और अपनी सूरत आइये में देखने लगी।
इधर पंडितजी प्रेम की उत्कंठा से कदम बढ़ाते दालान से आँगन और आँगन से विद्याधरी के कमरे में आ पहुँचे। विद्याधरी ने आकर उनके चरणों को अपने सिर से स्पर्श किया। पंडितजी उसका यह श्रृंगार देखकर दंग रह गए। एकाएक उनकी दृष्टि उस कंगन पर पड़ी। राजा रणधीरसिंह की संगति ने उन्हें रत्नों का पारखी बना दिया था। ध्यान से देखा तो एक-एक नगीना एक-एक हजार का था। चकित होकर बोले–यह कंगन कहाँ मिला?
विद्याधरी ने जवाब पहले ही सोच रखा थाः रानी प्रियंवदा ने दिया है। यह जीवन में पहला अवसर था कि विद्याधरी ने अपने पतिदेव से कपट किया। जब हृदय शुद्ध न हो, तो मुख से सत्य क्योंकर निकले! वह कंगन नहीं, एक विषैला नाग था।
एक सप्ताह गुजर गया। विद्याधरी के चित्त की शांति और प्रसन्नता लुप्त हो गई थी। ये शब्द कि ‘रानी प्रियंवदा ने दिया है’ प्रतिक्षण उसके कानों में गूँजा करते। वह अपने को धिक्कारती कि मैंने अपने प्राणाधार से क्यों कपट किया। बहुधा रोया करती। एक दिन उसने सोचा कि यह क्यों न चलकर पति से सारा वृत्तांत कह दूँ? क्या वह मुझे क्षमा न करेंगे? यह सोचकर वह उठी, किन्तु पति के सम्मुख जाते ही उसकी जबान बन्द हो गई। वह अपने कमरे में आयी और फूट-फूटकर रोने लगी। कंगन पहनकर उसे बहुत आनंद हुआ था। इसी कंगन ने उसे हँसाया था। अब वही रुला रहा था।
विद्याधरी ने रानी के साथ बागों में सैर करना छोड़ दिया। चौपड़ और शतरंज उसके नाम को रोया करते। वह सारे दिन अपने कमरे में पड़ी रोया करती, और सोचती कि क्या करूँ। काले वस्त्र पर काला दाग छिप जाता है, किंतु उज्जवल वस्त्र पर कालिमा की एक बूँद भी झलकने लगती है। वह सोचती, इसी कंगन ने मेरा सुख हर लिया है, यही कंगन मुझे रक्त के आँसू रुला रहा है। सर्प जितना सुन्दर होता है, उतना ही विषाक्त भी होता है। यह सुन्दर कंगन विषधर नाग है, मैं उसका सिर कुचल डालूँगी। यह निश्चय करके उसने एक दिन अपने कमरे में कोयले का अलाव जलाया, चारों तरफ के किवाड़ बन्द कर दिए और उस कंगन को, जिसने उसके जीवन को संकटमय बना रखा था, संदूकचे से निकालकर आग में डाल दिया। एक दिन वह था कि यह कंगन उसे प्राणों से भी प्यारा था। उसे मखमली संदूकचे में रखती थी। आज उसे इतनी निर्दयता से आग में जला रही है!
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