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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


दो साल हो गए है। लाला गोपीनाथ ने एक कन्या-पाठशाला खोली है, और उसके प्रबंधक हैं। शिक्षा की विभिन्न पद्धतियों का उन्होंने खूब अध्ययन किया है और इस पाठशाला में आप उनका व्यवहार कर रहे हैं। शहर में यह पाठशाला बहुत ही सर्वप्रिय है। इसने बहुत अंशों में उस उदासीनता को दूर कर दिया है, जो माता-पिता को पुत्रियों को शिक्षा की ओर होती है। शहर के गणमान्य पुरुष अपनी लड़कियों को सहर्ष पढ़ने भेजते हैं। वहाँ भी शिक्षा-शैली कुछ ऐसी मनोरंजक है कि बालिकाएँ एक बार जाकर मानो मंत्र-मुग्ध हो जाती हैं। फिर उन्हें घर पर चैन नहीं मिलता। ऐसी व्यवस्था की गई है कि तीन-चार वर्षों में कन्याओं को गृहस्थी के मुख्य कामों से परिचय हो जाय। सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ धर्म-शिक्षा का भी समुचित प्रबंध किया गया है। अबकी साल से प्रबन्धक महोदय ने अंग्रेजी की कक्षाएँ भी खोल दी हैं। उन्होंने एक सुशिक्षित गुजराती महिला को बंबई से बुलाकर पाठशाला उनके हाथ में दे दी है। इन महिला का नाम है आनंदीबाई। विधवा हैं, हिन्दी भाषा से भली-भाँति परिचित नहीं, किन्तु गुजराती में कई पुस्तकें लिख चुकी हैं। कई कन्या पाठशालाओं में काम कर चुकी हैं। शिक्षा-सम्बन्धी विषयों में अच्छी गति है। उनके आने से मदरसे में और भी रौनक आ गई है। कई प्रतिष्ठित सज्जनों ने, जो अपनी बालिकाओं को मसूरी और नैनीताल भेजना चाहते थे। अब उन्हें यहीं भरती करा दिया है।

आनंदीबाई रईसों के घरों में जाती हैं, और स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार करती हैं। उनके वस्त्राभूषणों से सुरुचि का बोध होता है। हैं भी उच्च कुल की, इसलिए शहर में उनका बड़ा सम्मान होता है। लड़कियाँ उन पर जान देती हैं। उन्हें माँ कहकर पुकारती हैं। गोपीनाथ पाठशाला की उन्नति देख-देखकर फूले नहीं समाते। जिससे मिलते हैं, आनंदीबाई का ही गुणगान करते हैं। बाहर से कोई सुविख्यात पुरुष आता है, तो उससे पाठशाला का निरीक्षण अवश्य कराते हैं। आनंदी की प्रशंसा से उन्हें वही आनंद मिलता है, जो स्वयं अपनी प्रशंसा से होता है। बाईजी को भी दर्शन से प्रेम है, और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें गोपीनाथ पर असीम श्रद्धा है। वह हृदय से उनका सम्मान करती हैं। उनके त्याग और निष्काम जाति-भक्ति ने उन्हें वशीभूत कर लिया है। वह मुँह पर तो उनकी बड़ाई नहीं करती, पर रईसों के घरों में बड़े प्रेम से उनका यशगान करती हैं। ऐसे सच्चे सेवक आजकल कहाँ? लोग कीर्ति पर जान देते हैं। जो थोड़ी-बहुत सेवा करते हैं, वह दिखावे के लिए। सच्ची लगन किसी में नहीं। मैं लाला जी को पुरुष नहीं देवता समझती हूँ। कितना सरल, संतोषमय जीवन है! न कोई व्यसन, न विलास। सबेरे से सायंकाल तक दौड़ते रहते हैं। न खाने का कोई समय, न सोने का। उस पर कोई ऐसा नहीं, जो उनके आराम का ध्यान रखे। बेचारे घर गये, जो कुछ किसी ने सामने रख दिया, चुपके से खा लिया, फिर छड़ी उठाई किसी तरफ चल दिए। दूसरी औरत कदापि अपनी पत्नी की भाँति सेवा-सत्कार नहीं कर सकती।

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