कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
गोपीनाथ–मैं भी न डरता, अगर मेरे कारण नगर की कई संस्थाओं का जीवन संकट में न पड़ जाता। इसलिए मैं बदनामी से डरता हूँ। समाज के बंधन निरे पाखंड हैं। मैं उन्हें सम्पूर्णतः अन्याय समझता हूँ। इस विषय में तुम मेरे विचारों को भली-भाँति जनती हो, पर करूँ क्या? दुर्भाग्य वश मैंने जातिसेवा का भार अपने ऊपर ले लिया है। उसी का फल है कि आज मुझे अपने माने हुए सिद्धांतों को तोड़ना पड़ रहा है और जो वस्तु मुझे प्राणों से भी प्रिय है, उसे यों निर्वासित करने पर मजबूर हो रहा हूँ।
किन्तु आनंदी की दशा सँभलने की जगह दिनोंदिन गिरती ही गई। कमजोरी से उठना-बैठना कठिन हो गया। किसी वैद्या या डाक्टर को उसकी अवस्था न दिखाई जाती थी। गोपीनाथ दवाएँ लाते थे, आनंदी उसका सेवन करती थी, और दिन-दिन निर्बल होती थी। पाठशाला से उसने छुट्टी ले ली थी। किसी से मिलती-जुलती भी नहीं थी। बार-बार चेष्ठा करती कि मथुरा चली जाऊँ, किन्तु एक अनजान नगर में अकेले कैसे रहूँगी, न कोई आगे न पीछे; कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी नहीं यह सब सोचकर उसकी हिम्मत टूट जाती थी। इसी-सोच विचार और हैस-बैस में दो महीने गुजर गए और अंत में विवश होकर आनंदी ने निश्चय किया कि अब चाहे कुछ सिर पर बीते, यहाँ से चल ही दूँ अगर सफर में मर भी जाऊँगी तो क्या चिंता! उनकी बदनामी तो न होगी। उनके यश को कलंक तो न लगेगा। मेरे पीछे ताने तो न सुनने पड़ेंगे। सफर की तैयैरियाँ करने लगी। रात को जाने का मुहूर्त था कि सहसा संध्याकाल ही से प्रसव-पीड़ा होने लगी, और ग्यारह बजते-बजते एक नन्हा-सा दुर्बल सतमासा बालक प्रसव हुआ। बच्चे के रोने की आवाज सुनते ही लाला गोपीनाथ बेतहाशा ऊपर से उतरे और गिरते-पड़ते घर भागे। आनंदी ने इस भेद को अंत तक छिपाए रखा, अपनी दारुण प्रसव पीड़ा का हाल किसी से न कहा, दाई को सूचना न दी, मगर जब बच्चे के रोने की ध्वनि मदरसे में गूँजी; तो क्षण-मात्र में दाई सामने आकर खड़ी हो गई। नौकरानियों को पहले ही से शंकाएँ थीं। उन्हें कोई आश्चर्य न हुआ।
जब दाई ने आनंदी को पुकारा, तो वह सचेत हो गई। देखा, तो बालक रो रहा है।
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