कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
कुछ ऐसा संयोग हुआ कि अभी एम. ए. परीक्षार्थियों में उनका नाम निकलने भी न पाया कि ‘गौरव’ के सम्पादक महोदय ने वानप्रस्थ लेने की ठानी, और पत्रिका का भार ईश्वरचंद्र दत्त के सिर पर रखने का निश्चय किया। बाबूजी को यह समाचार मिला, तो उछल पड़े। धन्य भाग्य कि मैं इस सम्मान-पद के योग्य समझा गया! इसमें संदेह नहीं कि वह इस दायित्व के गुरुत्व से भली-भाँति परिचित थे,लेकिन कीर्ति-लाभ के प्रेम ने उन्हें बाधक परिस्थितियों को सामना करने पर उद्यत कर दिया। वह इस व्यवसाय में स्वातंत्र्य, आत्मगौरव अनुशीलन और दायित्व की मात्रा को बढ़ाना चाहते थे। भारतीय पत्रों को पश्चिम के आदर्श पर लाने के इच्छुक थे। इन इरादों के पूरा करने का सुअवसर हाथ आया। वह प्रेमोल्लास से उत्तेजित होकर नदी में कूद पड़े।
ईश्वरचंद्र की पत्नी एक ऊँचे और धनाढय कुल की लड़की थी, और ऐसे कुलों की मर्यादा-प्रियता तथा मिथ्या गौरव-प्रेम से सम्पन्न थी। यह समाचार पाकर डरी कि पति महाशय कहीं इस झंझट में फँसकर कानून से मुँह न मोड़ लें लेकिन जब बाबू साहब ने आश्वासन दिया कि यह कार्य उनके कानून के अभ्यास में बाधक न होगा, तो कुछ न बोली।
लेकिन ईश्वरचंद्र को बहुत जल्द मालूम हो गया कि पत्र-सम्पादन एक बहुत ही ईर्ष्या-युक्त कार्य है, जो चित्त की समस्त वृत्तियों का अपरहण कर लेता है। उन्होंने इसे मनोरंजन का एक साधन और ख्याति-लाभ का एक यंत्र समझा था–उसके द्वारा जाति की कुछ सेवा करना चाहते थे। उससे द्रव्योपार्जन का विचार तक न किया था। लेकिन नौका में बैठकर उन्हें अनुभव हुआ कि यात्रा उतनी सुखद नहीं, जितनी समझी थी। लेखों के संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्त्तन लेखक-गण से पत्र-व्यवहार, और चित्ताकर्षक विषयों की खोज और सहयोगियों से आगे बढ़ जाने की चिंता में उन्हें कानून के अध्ययन करने का अवकाश ही न मिलता था। सुबह किताबें खोलकर बैठते कि सौ पृष्ठ समाप्त किए बिना कदापि न उठूँगा, किन्तु ज्योंही डाक का पुलिंदा आ जाता, वह अधीर होकर उस पर टूट पड़ते, किताब खुली की खुली रह जाती थी। बार-बार संकल्प करते कि अब नियमित रूप से पुस्तकावलोकन करूँगा, और एक निर्दिष्ट समय से अधिक सम्पादन कार्य में न लगाऊँगा। लेकिन पत्रिकाओं का बंडल सामने आते ही दिल काबू के बाहर हो जाता।
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