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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


चंदूमल–बिलकूल झूठ, सरासर झूठ, सोलहों आना झूठ। तुम लोग अपनी कारगुजारी की धुन में इनसे उलझ पड़े। ये बेचारे तो दूकान से बहुत दूर खड़े थे। न किसी से बोलते थे, न चालते थे। तुमने जबरदस्ती ही इन्हें गरदनी देनी शुरू की। मुझे अपना सौदा बेचना है कि किसी से लड़ना।

दूसरा सिपाही–लालाजी हो बड़े होशियार! आग लगा कर अलग हो गए। तुम न कहते, तो हमें क्या पड़ी थी कि इन लोगों को धक्के देते? दारोगाजी ने भी हमको ताकीद कर दी थी कि सेठ चंदूमल की दूकान का विशेष ध्यान रखना। वहाँ कोई वालंटियर न आये। तब हम लोग आये थे। तुम फरियाद न करते, तो दारोगाजी हमारी तैनाती ही क्यों करते?

चंदूमल–दारोगाजी को अपनी कारगुजारी दिखानी होगी। मैं उनके पास क्यों फरियाद करने जाता? सभी लोग कांग्रेस के दुश्मन हो रहे हैं। थानेवाले तो उनके नाम से ही जलते हैं। क्या मैं शिकायत करता, तभी तुम्हारी तैनाती होती?

इतने में किसी ने थाने में इत्तिला की कि चंदूमल की दूकान पर कांस्टेबिलों और वालंटियरों में मार-पीट हो गई। काँग्रेस के दफ्तर में भी खबर पहुँची। जरा देर में सशस्त्र पुलिस को लेकर थानेदार और इंस्पेक्टर साहब आ पहुँचे। उधर कांग्रेस के कर्मचारी भी दल-बल सहित दौड़े। समूह और बढ़ा। बार-बार जय-जयकार की ध्वनि उठने लगी। कांग्रेस और पुलिस के नेताओं में वाद-विवाद होने लगा। परिणाम यह हुआ कि पुलिस वालों ने दोनों वालंटियरों को हिरासत में ले लिया, और थाने की ओर चले।

पुलिस अधिकारियों के चले जाने के बाद सेठजी ने कांग्रेस के प्रधान से कहा–आज मुझे मालूम हुआ कि ये वालंटियरों पर इतना घोर अत्याचार करते हैं।

प्रधान–तब तो दो वालंटियरों का फँसना व्यर्थ नहीं हुआ। इस विषय में अब तो आपको कोई शंका नहीं। हम कितने लड़ाकू, कितने द्रोही, कितने शांति-भंगकारी हैं, यह तो आपको खूब मालूम हो गया होगा?

चंदूमल–जी हाँ, खूब मालूम हो गया।

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