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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


यह पहला ही अवसर था कि मुझे किसी महिला के मुख से चाहे वह प्रतिनिधि द्वारा ही क्यों न हो, अपनी प्रशंसा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गरूर का नशा छा गया। धन्य है भगवान! अब रमणियाँ भी मेरे कृत्य की सराहना करने लगीं! मैंने तुरन्त उत्तर लिखा। जितने कर्णप्रिय शब्द मेरी स्मृति के कोष में थे, सब खर्च कर दिये। मैत्री और बंधुत्व से सारा पत्र भरा हुआ था। अपनी वंशावली का वर्णन किया। कदाचित् मेरे पूर्वजों का ऐसा कीर्ति-गान किसी भाट ने भी न किया होगा। मेरे दादा एक जमींदार के कारिंदे थे; मैंने उन्हें एक बड़ी रियासत का मैनेजर बतलाया। अपने पिता को, जो एक दफ्तर में क्लर्क थे, उस दफ्तर का प्रधानाध्यक्ष बना दिया। और, काश्तकारी को जमींदारी बना देना तो साधारण बात थी। अपनी रचनाओं की संख्या तो न बढ़ा सका, पर उनके महत्त्व आदर और प्रचार का उल्लेख ऐसे शब्दों में किया, जो नम्रता की ओट में अपने गर्व को छिपाते हैं। कौन नहीं जानता कि बहुधा ‘तुच्छ’ का अर्थ उसके विपरीत होता है, और दीन’ के माने कुछ और ही समझे जाते हैं। स्पष्ट रूप से अपनी बड़ाई करना उच्छृंखलता है; मगर सांकेतिक शब्दों से आप इसी काम को बड़ी आसानी से पूरा कर सकते हैं। खैर, मेरा पत्र समाप्त हो गया, और तत्क्षण लेटर-बाक्स के पेट में पहुँच गया।

इसके बाद दो सप्ताह तक कोई पत्र न आया। मैंने उस पत्र में अपनी गृहिणी की ओर से भी दो-चार समयोचित बातें लिख दी थीं। आशा थी, घनिष्ठता और भी घनिष्ठ होगी। कहीं कविता में मेरी प्रशंसा हो जाय, तो क्या पूछना! फिर तो साहित्य-संसार में मैं-ही-मैं नजर आऊँ! इस चुप्पी से निराशा होने लगी; लेकिन इस डर से कि कहीं कविजी मुझे मतलबी अथवा सेंटिमेंटल न समझ लें, कोई पत्र न लिख सका।

आश्विन का महीना था, और तीसरा पहर। रामलीला की धूम मची हुई थी। मैं अपने एक मित्र के घर चला गया था, और ताश की बाजी हो रही थी। सहसा एक महाशय मेरा नाम पूछते हुए, आये, और मेरे पास ही कुरसी पर बैठे गए मेरा उनसे कभी का परिचय न था। सोच रहा था, यह कौन आदमी है, और यहाँ कैसे आये। यार लोग उन महाशय की ओर देखकर आपस में इशारे बाजियाँ कर रहे थे। उनके आकार-प्रकार में कुछ नवीनता अवश्य थी। श्यामवर्ण नाटा डील, मुख पर चेचक के दाग, नंगा सिर बाल सँवारे हुए; सिर्फ सादी कमीज, गले में फूलों की एक माला; पैरों में एक फुल-बूट और हाथ में एक मोटी सी पुस्तक!

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