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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


कविताएँ तो मेरी समझ में खाक न आयीं, पर मैंने तारीफों के पुल बाँध दिए। झूम-झूमकर वाह-वाह करने लगा, जैसे मुझसे बढ़कर कोई काव्यरसिक संसार में न होगा। संध्या को हम रामलीला देखने गये। लौटकर उन्हें फिर भोजन कराया। अब उन्होंने अपना वृत्तांत सुनाना शुरु किया। इस समय वह अपनी पत्नी को लेने के लिए कानपुर जा रहे थे। उनका मकान कानपुर ही में था। उनका विचार था कि एक मासिक-पत्रिका निकालें। उनकी कविताओं के लिए एक प्रकाशक १,००० रु. देता था, पर उनकी इच्छा तो यह थी कि उन्हें पहले पत्रिका में क्रमशः निकालकर फिर अपनी ही लागत से पुस्तकाकार छपवाएँ। कानपुर में उनकी जमींदारी भी थी; पर वह साहित्यिक जीवन व्यतीत करना चाहते थे। जमींदारी से उन्हें घृणा थी। उनकी स्त्री एक कन्या-विद्यालय में प्रधानाध्यापिका थी। आधी रात तक बातें होती रहीं। अब उनमें से अधिकांश याद नहीं। हाँ, इतना याद है कि हम दोनों ने मिलकर अपने जीवन का एक कार्य-क्रम तैयार कर लिया था। मैं अपने भाग्य को सराहता था कि भगवान ने बैठे-बिठाए ऐसा सच्चा मित्र भेज दिया। आधी रात बीत गई, तब सोए। उन्हें दूसरे दिन आठ बजे की गाड़ी से जाना था। मैं जब सोकर उठा, तब सात बज चुके थे। उमापति जी मुँह-हाथ धोए तैयार बैठे थे। बोले–अब आज्ञा दीजिए, लौटते समय इधर ही से जाऊँगा। इस समय आपको कुछ कष्ट दे रहा हूँ। क्षमा कीजिएगा। मैं कल चला, तो प्रातः काल के चार बजे थे। दो बजे रात से पड़ा जाग रहा था कि कहीं नींद न आ जाय। बल्कि यों समझिए कि सारी रात जागना पड़ा। चलने की चिंता लगी हुई थी। गाड़ी में बैठा, तो झपकियाँ आने लगीं। कोट उतारकर रख दिया और लेट गया, तुरंत नींद आ गई। मुगलसराय में नींद खुली। कोट गायब! नीचे, ऊपर, चारों तरफ देखा, कहीं पता नहीं। समझ गया, किसी महाशय ने उड़ा दिया। सोने की सजा मिल गई। कोट में ५० रु. खर्च के लिए रखे थे; वे भी उसके साथ उड़ गए। आप मुझे ५० रु. दें। पत्नी को मायके से लाना है; कुछ कपड़े वगैरह ले जाने पड़ेंगे। फिर ससुराल में सैकड़ों तरह के नेग-जोग लगते हैं। कदम-कदम पर रुपये खर्च होते हैं। न खर्च कीजिए, तो हँसी हो। मैं इधर से लौटूँगा तो देता जाऊँगा।

मैं बड़े संकोच में पड़ा गया। एक बार पहले भी धोखा खा चुका था। तुरंत भ्रम हुआ, अबकी फिर वही दशा न हो, लेकिन शीघ्र ही मन के इस अविश्वास पर लज्जित हुआ। संसार में सभी मनुष्य एक-से नहीं होते। यह बेचारे इतने सज्जन हैं। इस समय संकट में पड़ गए हैं। और मैं मिथ्या संदेह में पड़ा हुआ हूँ घर में आकर पत्नी से कहा–तुम्हारे पास कुछ रुपये तो नहीं है?

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