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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञानशंकर अभी तक कुलियों को पुकार ही रहे थे कि प्रेमशंकर ने अपना सब सामान उठा लिया और बाहर चले। ज्ञानशंकर संकोच के मारे पीछे हट गये कि किसी जान-पहचान के आदमी से भेंट न हो जाये!

दोनों आदमी ताँगे पर बैठे, तो प्रेमशंकर बोले– छह साल के बाद आया हूँ, पर ऐसा मालूम होता है कि यहाँ से गये थोड़े ही दिन हुए हैं। घर पर तो सब कुशल है न?

ज्ञान– जी हाँ, सब कुशल है। आपने तो इतने दिन हो गये, एक पत्र भी न भेजा, बिल्कुल भुला दिया। आपके ही वियोग में बाबूजी के प्राण गये।

प्रेम– वह शोक समाचार तो मुझे यहाँ के समाचार पत्र से मालूम हो गया था, पर कुछ ऐसे ही कारण थे कि आ न सका! ‘‘हिन्दुस्तान रिव्यू’’ में तुमने नैनीताल के जीवन पर जो लेख लिखा था, उसे पढ़कर मैंने आने का निश्चय किया। तुम्हारे उन्नत विचारों ने ही मुझे खींचा, नहीं तो सम्भव है, मैं अभी कुछ दिन और न आता। तुम पॉलिटिक्स (राजनीति) में भाग लेते हो न?

ज्ञान– (संकोच भाव से) अभी तक तो मुझे इसका अवसर नहीं मिला। हाँ, उसकी स्टडी (अध्ययन) करता रहता हूँ।

प्रेम– कौन-सा प्रोफेशन (पेशा) अख्तियार किया?

ज्ञान– अभी तो घर के ही झंझटों से छुट्टी नहीं मिली। जमींदारी के प्रबन्ध के लिए मेरा घर रहना जरूरी था। आप जानते हैं यह जंजाल है। एक न एक झगड़ा लगा ही रहता है। चाहे उससे लाभ कुछ न हो पर मन की प्रवृत्ति आलस्य की ओर हो जाती है! जीवन के कर्म-क्षेत्र में उतरने का साहस नहीं होता। यदि यह अवलम्बन न होता तो अब तक मैं अवश्य वकील होता।

प्रेम– तो तुम भी मिल्कियत के जाल में फँस गये और अपनी बुद्धि-शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हो? अभी जायदाद के अन्त होने में कितनी कसर है?

ज्ञान– चाचा साहब का बस चलता तो कभी का अन्त हो चुका होता, पर शायद अब जल्द अन्त न हो मैं चाचा साहब से अलग हो गया हूँ।

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