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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञानशंकर ने झेंपते हुए कहा– अब मैं आपसे क्या कहूँ? हिन्दुओं को तो आप जानते ही हैं, कितने मिथ्यावादी होते हैं। आपके लौटने का समाचार जब से मिला है, सारी बिरादरी में एक तूफान-सा उठा हुआ है। मुझे स्वयं विदेशी यात्रा में कोई आपत्ति नहीं है। मैं देश और जाति की उन्नति के लिए इसे जरूरी समझता हूँ और स्वीकार करता हूँ कि इस नाकेबन्दी से हमको बड़ी हानि हुई है, पर मुझे इतना साहस नहीं है कि बिरादरी से विरोध कर सकूँ।

प्रेम– अच्छा यह बात है! आश्चर्य है कि अब तक क्यों मेरी आँखों पर परदा पड़ा रहा! अब मैं ज्यादा आग्रह नहीं करूंगा। भोजन करता हूँ, पर खेद यह है कि तुम इतने विचारशील होकर बिरादरी के गुलाम बने हुए हो; विशेषकर जब तुम मानते हो कि इस विषय में बिरादरी का बन्धन सर्वथा असंगत है। शिक्षा का फल यह होना चाहिए कि तुम बिरादरी के सूत्रधार बनो, उसको सुधारने का प्रयास करो, न यह कि उसके दबाव से अपने सिद्धान्तों को बलिदान कर दो। यदि तुम स्वाधीन भाव से समुद्र यात्रा को दूषित समझते तो मुझे कोई आपत्ति न होती। तुम्हारे विचार और व्यवहार अनुकूल होते। लेकिन अन्तःकरण से किसी बात से कायल होकर केवल निन्दा या उपहास के भय से उसको व्यवहार न करना तुम जैसे उदार पुरुष को शोभा नहीं देता। अगर तुम्हारे धर्म में किसी मुसाफिर की बातों पर विश्वास करना मना न हो तो मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि अमेरिका में मैंने कोई ऐसा कर्म नहीं किया जिसे हिन्दू-धर्म निषिद्ध ठहराता हो। मैंने दर्शन शास्त्रों पर कितने ही व्याख्यान दिए, अपने रस्म-रिवाज और और वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करने में सदैव तत्पर रहा, यहाँ तक कि पर्दे की रस्म की भी सराहना करता रहा; और मेरा मन इसे कभी नहीं मान सकता कि यहाँ किसी को मुझे विधर्मी समझने का अधिकार है। मैं अपने धर्म और मत का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा पहले था– बल्कि उससे ज्यादा। इससे अधिक मैं अपनी सफाई नहीं दे सकता।

ज्ञान– इस सफाई की तो कोई जरूरत ही नहीं क्योंकि यहाँ लोगों को विदेशी-यात्रा पर अश्रद्धा है, वह किसी तर्क या सिद्धान्त के अधीन नहीं हैं। लेकिन इतना तो आपको भी मानना पड़ेगा कि हिन्दू-धर्म कुछ रीतियों और प्रथाओं पर अवलम्बित है और विदेश में आप उनका पालन समुचित रीति से नहीं कर सकते। आप वेदों से इनकार कर सकते हैं, ईसा मूसा के अनुयायी बन सकते हैं, किन्तु इन रीतियों को नहीं त्याग सकते। इसमें संदेह नहीं कि दिनों-दिन यह बन्धन ढीले होते जाते हैं और इसी देश में ऐसे कितने ही सज्जन हैं जो प्रत्येक व्यवहार का भी उलंघन करके हिन्दू बने हुए हैं किन्तु बहुमत उनकी उपेक्षा करता है और उनको निन्द्य समझता है। इसे आप मेरी आत्मभीरुता या अकर्मण्यता समझें, किन्तु मैं बहुमत के साथ चलना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। मैं बलप्रयुक्त सुधार का कायल नहीं हूँ मेरा विचार है कि हम बिरादरी में रहकर उससे कहीं अधिक सुधार कर सकते हैं जितना स्वाधीन होकर।

प्रेमशंकर ने इसका कुछ जवाब न दिया। भोजन करके लेटे तो अपनी परिस्थिति पर विचार करने लगे। मैंने समझा था यहाँ शान्तिपूर्वक अपना काम करूँगा, कम-से-कम अपने घर में कोई मुझसे विरोध न करेगा, किन्तु देखता हूँ, यहाँ कुछ दिन घोर अशान्ति का सामना करना पड़ेगा। ज्ञानशंकर के उदारतापूर्ण लेख ने मुझे भ्रम में डाल दिया। खैर कोई चिन्ता नहीं, बिरादरी मेरा कर ही क्या सकती है? उसमें रहकर मुझमें कौन-से सुर्खाब के पर लग जायेंगे। अगर कोई मेरे साथ नहीं खाता तो न खाय, मैं भी उसके साथ न खाऊँगा। कोई मुझसे सहवास नहीं करता, न करे, मैं भी उससे किनारे रहूँगा। वाह! परदेश क्या गया, मानो कोई पाप किया; पर पापियों को तो कोई बिरादरी से च्युत नहीं करता। धर्म बेचने वाले, ईमान बेचनेवाले, सन्तान बेचने वाले बँगले में रहते हैं, कोई उनकी ओर कड़ी आँख से देख नहीं सकता। ऐसे पतितों, ऐसे भ्रष्टाचारियों में रहने के लिए मैं अपनी आत्मा का सर्वनाथ क्यों करूँ?

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