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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


यहाँ लोग आपके प्रायश्चित करने की चर्चा कर रहे हैं। मैं जानती हूँ, आपको बिरादरी का भय नहीं है, पर यह भी जानती हूँ कि आप मुझ पर दया और प्रेम रखते हैं। क्या मेरी खातिर इतना न कीजिएगा? – मेरे धर्म को न निभाइएगा?

इस सन्दूकची में मेरे कुछ गहने और रुपये हैं–  गहने अब किसके लिए पहनूँ? कौन देखेगा? यह तुच्छ भेंट है, उसे स्वीकार कीजिए। यदि आप ने लेंगे, तो समझूँगी कि आपने मुझसे नाता तोड़ दिया।  

– आपकी अभागिनी,
श्रद्धा।’


प्रेमशंकर के मन में पहले विचार हुआ कि सन्दूकची को वापस कर दूँ और लिख दूँ कि मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। क्या मैं ऐसा निर्लज्ज हो गया कि जो स्त्री मेरे साथ इतनी निष्ठुरता से पेश आये उसी के सामने मदद के लिए हाथ फैलाऊँ? लेकिन एक ही क्षण में यह विचार पलट गया। उसके स्थान पर यह शंका हुई कि कहीं इसके मन में कुछ और तो नहीं ठान ली है? यह पत्र किसी विषम संकल्प का सूचक तो नहीं है? वह आस्थिर चित्त होकर इधर-उधर टहलने लगे। सहसा लाला प्रभाशंकर से बोले– आपको तो मालूम होगा ज्ञानशंकर का बर्ताव उसके साथ कैसा है?

प्रभा– बेटा, यह बात मुझसे मत पूछो। हाँ, इतना कहूँगा कि तुम्हारे यहाँ रहने से बहुत दुखी है। तुम्हें मालूम है कि उसको तुमसे कितना प्रेम है। तुम्हारे लिए उसने बड़ी तपस्या की है। उसके ऊपर तुम्हारी अकृपा नितान्त अनुचित है।

प्रेम– मुझे वहाँ रहने में कोई उज्र नहीं है। हाँ, ज्ञानशंकर के कुटिल व्यवहार से दुःख होता है और फिर वहाँ बैठकर यह काम न होगा। किसानों के साथ मैं उनकी जितनी सेवा कर सकता हूँ, अलग रहकर नहीं कर सकता। आपसे केवल प्रार्थना करता हूँ कि आप उसे बुलाकर उसकी तस्कीन कर दीजिएगा। मेरे विचार से उसका व्यवहार कितना ही अनुचित क्यों न हो, पर मैं उसे निरपराध समझता हूँ। यह दूसरों के बहकाने का फल है। मुझे शंका होती है कि वह जान पर न खेल जाये।

प्रभा– मगर तुम्हें वचन देना होगा कि सप्ताह में कम-से-कम एक बार वहाँ अवश्य जाया करोगे।

प्रेम– इसका पक्का वादा करता हूँ।

प्रभाशंकर ने लौटना चाहा, पर प्रेमशंकर ने उन्हें साग्रह रोक लिया। हाजीगंज में एक सज्जन ठाकुर भवानीसिंह रहते थे। उनके यहाँ भोजन का प्रबन्ध किया गया। पूरियाँ मोटी थीं और भाजी भी अच्छी न बनी थी; किन्तु दूध बहुत स्वादिष्ट था। प्रभाशंकर ने मुस्कुराकर कहा– यह पूरियाँ हैं या लिट्टी? मुझे तो दो-चार जिन भी खानी पड़ें तो काम तमाम हो जाये। हाँ, दूध की मलाई अच्छी है।

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