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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्वालासिंह मौनी बने बैठे थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि ज्ञानशंकर में इतनी दयाहीन स्वार्थपरता कहाँ से आ गई? अभी क्षण-भर पहले यह महाशय न्याय और लोक-सेवा का कैसा महत्वपूर्ण वर्णन कर रहे थे। इतनी ही देर में यह कायापलट। विचार और व्यवहार में इतना अन्तर? मनोहर चला गया तो ज्ञानशंकर से बोले– इजाफा लगान का दावा कीजिएगा तो क्या उसकी ओर से उज्रदारी न होगी? आप केवल एक असामी पर दावा नहीं कर सकते।

ज्ञानशंकर– हाँ, यह आप ठीक कहते हैं। खाँ साहब, आप उन असामियों की एक सूची तैयार कीजिए, जिन पर कायदे के अनुसार इजाफा हो सकता है। क्या हरज है, लगे हाथ सारे गाँव पर दावा हो जाये?

ज्वालासिंह ने मनोहर की रक्षा के लिए यह शंका की थी। उसका यह विपरीत फल देखकर उन्हें फिर कुछ कहने का साहस न हुआ। उठकर ऊपर चले गये।

एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की। गौस खाँ के स्व-हित और स्वामि-हित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का लाभ होगा तो मुझको क्या पड़ी है कि बैठे-बिठाए सिर-दर्द मोल लूँ। सैकड़ों गरीबों का गला तो मैं दबाऊँ और चैन सारा घर करे। वह इस सारे अन्याय का लाभ अकेले ही उठाना चाहते थे, और लोग भी शरीक हों, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। अब उन्हें रात-दिन यही दुश्चिन्ता रहती थी कि किसी तरह चचा साहेब से अलग हो जाऊँ। यह विचार सर्वथा उनके स्वार्थानुकूल था। उनके ऊपर केवल तीन प्राणियों के भरण-पोषण का भार था– आप, स्त्री और भावज। लड़का अभी दूध पीता था। इलाके की आमदनी का बड़ा भाग प्रभाशंकर के काम आता था। जिनके तीन पुत्र थे, दो पुत्रियाँ एक बहू, एक पोता और स्त्री-पुरुष आप। ज्ञानशंकर अपने पिता के परिवार-पालन पर झुँझलाया करते। आज से तीन साल पहले वह अलग हो गये होते तो आज हमारी दशा ऐसी खराब न होती। चचा के सिर जो पड़ती उसे झेलतें, खाते चाहे उपवास करते, हमसे तो कोई मतलब न रहता बल्कि उस दशा में यह उनकी कुछ सहायता करते तो वह इसे ऋण समझते, नहीं तो आज भाड़-लीप कर हाथ काला करने के सिवा और क्या मिला? प्रभाशंकर दुनिया देखे हुए थे। भतीजे का यह भाव देखकर दबते थे, अनुचित बातें सुनकर भी अनुसुनी कर जाते। दयाशंकर उनकी कुछ सहायता, करने के बदले उलटे उन्हीं के सामने हाथ फैलाते रहते थे, इसलिए दब कर रहने में ही उनका कल्याण था।

ज्ञानशंकर दम्भ और द्वेष के आवेग में बहने लगे। एक नौकर चचा का काम करता तो दूसरे को खामखाह अपने किसी न किसी काम में उलझा रखते। इसी फेर में पड़े रहते कि चचा के आठ प्राणियों पर जितना व्यय होता है उतना मेरे तीन प्राणियों पर हो। भोजन करने जाते तो बहुत-सा खाना जूठा करके छोड़ देते। इतने पर भी सन्तोष न हुआ तो दो कुत्ते पाले। उन्हें साथ बैठाकर खिलाते। यहाँ तक कि प्रभाशंकर डॉक्टर के यहाँ से कोई

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