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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


लाला प्रभाशंकर ने बेटे को बरी कराने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। वह रात-दिन इसी चिन्ता में डूबे रहते थे। पुत्र-प्रेम तो था ही पर कदाचित् उससे भी अधिक लोकनिन्दा की लाज थी। जो घराना सारे शहर में सम्मानित हो उसका यह पतन हृदय-विदारक था। जब वह चारों तरफ से दौड़-धूप कर निराश हो गये तब एक दिन ज्ञानशंकर से बोले– आज जरा ज्वालासिंह के पास चले जाते; तुम्हारे मित्र हैं, शायद कुछ रियायत करें।

ज्ञानशंकर ने विस्मित भाव से कहा– मेरा इस वक्त-उनके पास जाना सर्वथा अनुचित है।

प्रभाशंकर– मैं जानता हूँ और इसीलिए अब तक तुमसे जिक्र नहीं किया लेकिन अब इसके बिना काम नहीं चलता दिखाई देता। डिप्टी साहब अपने इजलास से बरी कर दें फिर आगे हम देख लेंगे। वह चाहें तो सबूतों को निर्बल बना सकते हैं।

ज्ञान– पर आप इसकी कैसे आशा रखते हैं कि मेरे कहने से वह अपने ईमान का खून करने पर तैयार हो जायेंगे।

प्रभाशंकर ने आग्रह पूर्वक कहा– मित्रों के कहने– सुनने का बड़ा असर होता है। बूढों की बातें बहुधा वर्तमान सभ्य प्रथा के प्रतिकूल होती हैं। युवकगण इन बातों पर अधीर हो उठते हैं। उन्हें बूढ़ों का यह अज्ञान-अक्षम्य-सा जान पड़ता है ज्ञानशंकर चिढ़कर बोले– जब आपकी समझ में बात ही नहीं आती तो मैं क्या करूँ मैं अपने को दूसरों की निगाह में गिराना नहीं चाहता।

प्रभाशंकर ने पूछा– क्या अपने भाई की सिफारिश करने से अपमान होता है?

ज्ञानशंकर ने कटु भाव से कहा– सिफ़ारिश चाहे किसी काम के लिए हो, नीची बात है, विशेष करके ऐसे मामले में।

प्रभाशंकर बोले– इसका अर्थ तो यह है कि मुसीबत में भाई से मदद की आशा न रखनी चाहिए।

‘मुसीबत उन कठिनाइयों का नाम है जो दैवी और अनिवार्य कारणों से उत्पन्न हों, जान-बूझ कर आग में कूदना मुसीबत नहीं है।’

‘लेकिन जो जान-बूझकर आग में कूदे, क्या उसकी प्राण-रक्षा न करनी चाहिए?’

इतने में बड़ी बहू दरवाजे पर आकर खड़ी हो गयीं और बोली–  चलकर लल्लू (दयाशंकर) को जरा समझा क्यों नहीं देते? रात को भी खाना नहीं खाया और इस वक्त अभी तक हाथ-मुँह नहीं धोया। प्रभाशंकर खिन्न होकर बोले– कहाँ तक समझाऊँ? समझाते-समझाते तो हार गया। बेटा? मेरे चित्त की इस समय जो दशा है, वह बयान नहीं कर सकता। तुमने जो बातें कहीं हैं वह बहुत माकूल हैं, लेकिन मुझ पर इतनी दया करो, आज डिप्टी साहब के पास जरा चले आओ। मेरा मन कहता है, कि तुम्हारे जाने से कुछ-न-कुछ उपकार अवश्य होगा।

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