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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञान– तो यह धमकी किसे देती हो? कल के बदले आज ही हिस्सा बाँट कर लो!

बड़ी बहू– क्या तुम समझते हो कि हम तुम्हारा दिया खाती हैं?

ज्ञान– इन बातों का प्रयोजन ही क्या है?

बड़ी बहू– नहीं, तुम्हें यही घमण्ड है।

ज्ञान– अगर यही घमण्ड है तो क्या अन्याय है जितना आपका खर्च है उतना मेरा कभी नहीं है।

बड़ी बहू ने पति की ओर देखकर व्यंग्य भाव से कहा– कुछ सुन रहे हो सपूत की बातें! बोलते क्यों नहीं? क्या मुँह में दही जमा हुआ है। बाप हजारों रुपये साल साधु-भिखारियों को खिला दिया करते थे, मरते दम तक पालकी के बारह कहार दरवाजे से नहीं टले। इन्हें आज हमारी रोटियाँ अखर रही हैं। लाला हमारा जस मानो कि आज रईसों की तरह चैन कर रहे हो, नहीं तो मुँह में मक्खियाँ आती-जातीं।

प्रभाशंकर यह बातें न सुन सके। उठकर चले गये। बड़ी मोर्चे पर अकेले ठहर न सकीं, घर में चली गईं। लेकिन ज्ञानशंकर वहीं बैठे रहे। उनके हृदय में एक दाह-सी हो रही थी। इतनी निष्ठुरता! इतनी कृतध्नता! मैं कमीना हूँ, मैं दुश्मन हूँ, मेरी सूरत देखना पाप है। जिन्दगी-भर हमको नोचा-खसोटा, आज यह बातें! यह घमण्ड! देखता हूँ यह घमंड कब तक रहता है? इसे तोड़ न दिया तो कहना! लोग सोचते होंगे, मालिक तो हम हैं, कुँज्जियाँ तो हमारे पास हैं, इसे जो देंगे, वह ले लेगा। एक-एक चीज का आधा करा लूँगा। बुढ़िया के पास जरूर रुपये हैं। पिता जी ने सब कुछ इन्हीं लोगों पर छोड़ दिया था। इसने काट-कपट कर दस-बीस हजार जमा कर लिया है। बस, उसी का घमण्ड है, और कोई बात नहीं। द्वेष में दूसरों को धनी समझने की विशेष चेष्टा होती है।

ज्ञानशंकर इन कुकल्पनाओं से भरे हुए बाहर आये तो चाचा को दीवानखाने में मुंशी ईजादहुसैन से बातें करते पाया। यह मुंशी ज्वालासिंह के इजलास के अहलमद थे– बड़े बातूनी, बड़े चलते– पुर्जे, वह कह रहे थे आप घबरायें नहीं, खुदा ने चाहा तो बाबू दयाशंकर बेदाग बरी हो जायेंगे। मैंने महरी की मारफत उनकी बीवी को ऐसा चंग पर चढ़ाया है कि वह दारोगा जी को बिना बरी कराये डिप्टी साहब का दामन न छोड़ेंगी। सौ-दो सौ रुपये खर्च हो जायेंगे, मगर क्या मुजायका, आबरू तो बच जायेगी। अकस्मात् ज्ञानशंकर को वहाँ देखकर वह कुछ झेंप गये।

प्रभाशंकर बोले– रुपये जितने दरकार हों ले जायें, आपकी कोशिश से बात बन गई तो हमेशा आपका शुक्रगुजार रहूँगा।

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