सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
गिरधर– तुम बड़े असामी हो। भला दस रुपये तो लो और दुखरन भगत, तुम्हें कितना दें?
दुखरन– हमें भी पाँच रुपये दे दो।
मनोहर– मेरे घर तो एक ही भैंस लगती है, उसका दूध बाल-बच्चों में उठ जाता है, घी होता ही नहीं। अगर गाँव में कोई कह दे कि मैंने एक पैसे का भी घी बेचा है तो ५० रुपये लेने पर तैयार हूँ।
गिरधर– अरे क्या ५ रुपये भी न लोगे? भला भगत के बराबर तो हो जाओ।
मनोहर– भगत के घर में भैंस लगती है, घी बिकता है, वह जितना चाहें ले लें। मैं रुपये ले लूँ तो मुझे बाजार में दस छटाँक को मोल लेकर देना पड़ेगा।
गिरधर– जो चाहो करो, पर सरकार का हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। लालगंज में ३० रुपये दे आया हूँ। वहाँ गाँव में एक भैंस भी नहीं है। लोग बाजार से ही लेकर देंगे। पड़ाव में २० रुपये दिए हैं। वहाँ भी जानते हो किसी के भैंस नहीं है।
मनोहर– भैंस न होगी तो पास रुपये होंगे। यहाँ तो गाँठ में कौड़ी भी नहीं है।
गिरधर– जब ज़मींदार की जमीन जोतते हो तो उसके हुक्म के बाहर नहीं जा सकते।
मनोहर– जमीन कोई खैरात जोतते हैं। उसका लगान देते हैं। एक किस्त भी बाकी पड़ जाये तो नालिस होती है।
गिरधर– मनोहर, घी तो तुम दोगे दौड़ते हुए, पर चार बातें सुनकर। ज़मींदार के गाँव में रहकर उससे हेकड़ी नहीं चल सकती। अभी कारिन्दा साहब बुलायेगे तो रुपये भी दोगे, हाथ-पैर भी पड़ोगे, मैं सीधे कहता हूँ तो तेवर बदलते हो।
मनोहर ने गरम होकर कहा– कारिन्दा कोई काटू है न ज़मींदार कोई हौवा है। यहाँ कोई दबेल नहीं है। जब कौड़ी-कौड़ी लगान चुकाते हैं तो धौंस क्यों सहें?
गिरधर– सरकार को अभी जानते नहीं हो। बड़े सरकार का जमाना अब नहीं है। इनके चंगुल में एक बार आ जाओगे तो निकलते न बनेगा।
मनोहर की क्रोधाग्नि और भी प्रचण्ड हुई। बोला– अच्छा जाओ, तोप पर उड़वा देना। गिरधर महाराज उठ खड़े हुए। सुक्खू और दुखरन ने अब मनोहर के साथ बैठना उचित न समझा। वह भी गिरधर के साथ चले गये। मनोहर ने इन दोनों आदमियों को तीव्र दृष्टि से देखा और नारियल पीने लगा।
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