सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
कादिर– कल लश्कर का एक चपरासी बिसेसर के यहाँ साबूदाना माँग रहा था। बिसेसर हाथ जोड़ता था, पैरों पड़ता था कि मेरे यहाँ नहीं है, लेकिन चपरासी एक न सुनता था, कहता था जहाँ से चाहो मुझे लाकर दो। गालियाँ देता था, डण्डा दिखाता था। बारे बलराज पहुँच गया। जब वह कड़ा पड़ा तो चपरासी मियाँ नरम पड़े, और भुनभुनाते चले गये ।
दुखरन– बिसेसर की एक मरम्मत हो जाती तो अच्छा होता। गाँव भर का गला मरोड़ता है, यह उसकी सजा है।
डपट– और हम-तुम किसका गला मरोड़ते हैं?
मनोहर ने चिन्तित भाव से कहा– बलराज अब सराकीर आदमियों के मुँह आने लगा। कितना समझा के हार गया मानता नहीं।
कादिर– यह उमिर ही ऐसी होती है।
यही बातें हो रही थीं कि एक बटोही आकर अलाव के पास खड़ा हो गया। उसके पीछे-पीछे एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अलाव से दूर सिर झुकाकर बैठ गयी।
कादिर ने पूछा– कहो भाई, कहाँ घर है?
घर तो देवरी पार, अपनी बुढ़िया माता को लिये अस्पताल जाता था। मगर वह जो सड़क के किनारे बगीचे में डिप्टी साहब का लश्कर उतरा है, वहाँ पहुँचा तो चपरासी ने गाड़ी रोक ली और हमारे कपड़े-लत्ते फेंक-फाँक कर लकड़ी लादने लगे, कितनी अरज-बिनती की, बुढ़िया बीमार है, रातभर का चला हूँ, आज अस्पताल नहीं पहुँचा तो कल न जाने इसका क्या हाल हो! मगर कौन सुनता है? मैं रोता ही रहा, वहाँ गाड़ी लद गयी! तब मुझसे कहने लगे, गाड़ी हाँक। क्या करूँ अब गाड़ी हाँक सदर जा रहा हूँ। बैल और गाड़ी उनके भरोसे छोड़कर आया हूँ जब लकड़ी पहुँचा के लौटूँगा तब अस्पताल जाऊँगा। तुम लोगों को हो सके तो बुढ़िया के लिए खटिया दे दो और कहीं पड़ रहने का ठिकाना बता दो। इतना पुण्य करो, मैं बड़ी विपत्तियों में हूँ।
दुखरन– यह बड़ा अन्धेर है। यह लोग आदमी काहे के, पूरे राक्षस हैं, जिन्हें दयाधरम का विचार नहीं।
डपट– दिन-भर के थके-माँदे बैल हैं, न जाने कहाँ गाड़ी ले जानी पड़ेगी और न जाने जब लौटोगे। तब तक बुढ़िया अकेली पड़ी रहेगी। जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े! हम लोग कितने भी हों, हैं तो पराये ही, घर के आदमी की और बात है।
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