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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


बलराज– इसीलिए कि जो हमसे अधिक काम करता है उसे हमसे अधिक खाना चाहिए। हमने तुमसे बार-बार कह दिया है कि रसोई में जो कुछ थोड़ा-बहुत हो, वह सबके सामने आना चाहिए। अच्छा खाँय तो सब खाँय बुरा खाँय तो सब खाँय लेकिन तुम्हें न जाने क्यों यह बात भूल जाती है? अब याद रहेगी। रंगी कोई बेगार का आदमी नहीं है, घर का आदमी है। वह मुँह से चाहे न कहे, पर मन में अवश्य कहता होगा कि छाती फाड़कर काम मैं करूँ और मूछों पर ताव देकर खाँय यह लोग। ऐसे दूध-घी खाने पर लानत है।

रंगी ने कहा– भैया, नित तो दूध खाता हूँ, एक दिन न सही। तुम हक-नाहक इतने खफा हो गये।

इसके बाद तीनों आदमी चुपचाप खाने लगे। खा-पीकर बलराज और रंगी ऊख की रखवाली करने मण्डिया की तरफ चले। वहाँ बलराज ने चरस निकाली और दोनों ने खूब दम लगाये। जब दोनों ऊख के बिछावन पर कंबल ओढ़कर लेटे तो रंगी बोला–  काहे भैया आज तुमसे लश्कर के चपरासियों से कुछ कहा सुनी हो गयी थी क्या?

बलराज– हाँ, हुज्जत हो गयी। दादा ने मने न किया होता तो दोनों को मारता।

रंगी– तभी दोनों बुरा-भला कहते चले जाते थे। मैं उधर से क्यारी में पानी खोलकर आता था। मुझे देखकर दोनों चुप हो गये। मैंने इतना सुना; अगर यह लौंडा कल सड़क पर गाड़ियाँ पकड़ने में कुछ तकरार करे तो बस चोरी का इलजाम लगाकर गिरफ्तार कर लो। एक पचास बेंत पड़ जायें तो इसकी शेखी उतर जाय।’

बलराज– अच्छा, यह सब यहाँ तक मेरे पीछे पड़े हुए हैं। तुमने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया, मैं कल सवेरे ही डिप्टी साहेब के पास जाऊँगा।

रंगी– क्या करने जाओगे भैया। सुनते हैं। अच्छा आदमी नहीं है। बड़ी कड़ी सजा देता है। किसी को छोड़ना तो जानता ही नहीं। तुम्हें क्या करना है? जिसकी गाड़ियाँ पकड़ी जायेंगी वह आप निबट लेगा।

बलराज– वाह,लोगों में इतना ही बूता होता तो किसी की गाड़ी पकड़ी ही क्यों जाती? सीधे का मुंह कुत्ता चाटता है। यह चपरासी भी तो आदमी ही है!

रंगी– तो तुम काहे को दूसरे के बीच में पड़ते हो? तुम्हारे दादा आज उदास थे और अम्माँ रोती रहीं।

बलराज– क्या जाने, क्यों रंगी, जब से दुनिया का थोड़ा-बहुत हाल जानने लगा हूँ, मुझसे अन्याय नहीं देखा जाता। जब किसी जबरे को किसी गरीब का गला दबाते देखता हूँ तो मेरे बदन में आग-सी लग जाती है। यही जी चाहता है कि चाहे अपनी जान रहे या जाय, इस जबरे का सिर नीचा कर दूँ। सिर पर एक भूत-सा सवार हो जाता है। जानता हूँ कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, पर मन काबू से बाहर हो जाता है।

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