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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ईजाद हुसेन-फरियाद का मजा तो चख लिया। अब चालान होता है तो देखें कहाँ जाते हो। सरकारी आदमियों से मुहाजिम होना कोई खाला जी का घर नहीं है। डिप्टी साहब को तुम लोगों की सरकशी का रत्ती-रत्ती हाल मालूम है। बाबू ज्ञानशंकर ने सारा कच्चा चिट्ठा उनसे बयान कर दिया है। वह तो मौके की तलाश में थे। आज शाम तक सारा गाँव बँधा जाता है। गौस खाँ को सीधा पा लिया है, इसी से शेर हो गये। अब सारी कसर निकल जाती है। इतने बेंत पड़ेगे कि धज्जियाँ उड़ जायेंगी।

बलराज– ऐसा कोई अँधेर है कि हाकिम लोग बेकसूर किसी को सजा दे दें।

ईजाद हुसेन– हाँ हाँ, ऐसा ही अँधेर है। सरकारी आदमियों को हमेशा बेगार मिली है और हमेशा मिलेगी। तुम गाड़िया न दोगे तो वह क्या अपने सिर पर असबाब लादेंगे? हमें जिन-जिन चीजों की जरूरत होगी, तुम्हीं से न जायेंगी। हँसकर दो रोकर दो। समझ गये...।

इतने में एक चपरासी ने कहा– चलिए आपको सरकार याद करते हैं। आज़ाद हुसेन पान खाए हुये थे। तुरन्त कुल्ली की, पगड़ी बाँधी और ज्वालासिंह के सामने जाकर सलाम किया।

ज्वालासिंह ने कहा– मीर साहब, चपरासियों को ताकीद कर दीजिए कि अब से कैम्प के लिए बेगार में गाड़ियाँ न पकड़ा करें। आप लोग अपना सामान मेरे ऊँटों पर रखा कीजिए। इससे आप लोगों को चाहे थोड़ी-सी तकलीफ हो, लेकिन यह मुनासिब नहीं मालूम होता कि अपनी आसाइश के लिए दूसरों पर जब्र किया जाय।

ईजाद हुसेन– हुजूर बजा फरमाते हैं। आज से गाड़ियाँ पकड़ने की सख्त मुमानियत कर दी जायेगी। बेशक यह सरासर जुल्म है।

ज्वालासिंह– चपरासियों से कह दीजिए कि मेरे इजलास के खेमे में रात को सो रहा करें। बेगार में पुआल लेने की जरूरत नहीं। गरीब किसान यहीं पुआल काट-काट कर जानवरों की खिलाते हैं, इसलिए उन्हें इसका देना नागवार गुजरता है।

ईजाद हुसेन-हुजूर का फरमाना बजा है। हुक्काम को ऐसा ही गरीब परवार होना चाहिए। लोग ज़मींदारों की सख्तियों से यों ही परेशान रहते हैं। उस पर हुक्काम की बेगार तो और भी सितम हो जाती है।

ज्वालासिंह के हृदय में ज्ञानशंकर के ताने अभी तक खटक रहे थे। यदि थोड़े से कष्ट से उन पर छीटें उड़ाने को सामग्री हाथ आ जाय तो क्या पूछना! ज्वाला सिंह इस द्वेष के आवेग को न रोक सके। एक बार गाँव में जाकर उनकी दशा आँखों से देखने का निश्चय किया।

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