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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


विद्या– कल शाम की गाड़ी से चलो। कुछ रुपये लेते चलने होंगे। मैं उनके षोड़शे में कुछ दान करना चाहती हूँ।

ज्ञान– हाँ, हाँ, जरूर। अब उनकी आत्मा को सन्तुष्ट करने का हमारे पास वही तो एक साधन रह गया है।

विद्या– उन्हें घोड़े की सवारी का बहुत शौक था। मैं एक घोड़ा उनके नाम पर देना चाहती हूँ।

ज्ञान– बहुत अच्छी बात है। दो-ढाई सौ में घोड़ा मिल जायेगा।

विद्यावती ने डरते-डरते यह प्रस्ताव किया था। ज्ञानशंकर ने उसे सहर्ष स्वीकार करके उसे मुग्ध कर दिया।

ज्ञानशंकर इस अपव्यय को इस समय काटना अनुचित समझते थे यह अवसर ही ऐसा था। अब वह विद्या का निरादर तथा अवहेलना न कर सकते थे।

१०

राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थे। यद्यपि उनकी पत्नी का देहान्त उनकी युवावस्था में हो गया, पर उन्होंने दूसरा विवाह न किया था। मित्रों और हितसाधकों ने बहुत घेरा पर वह पुनर्विवाह के बन्धन में न पड़े। विवाह उद्देश्य सन्तान है और जब ईश्वर ने उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियां प्रदान कर दीं तो फिर विवाह करने की क्या जरूरत? उन्होंने अपनी बड़ी लड़की गायत्री का विवाह गोरखपुर के एक बड़े रईस से किया। उत्सव में लाखों रुपये खर्च कर दिये। पर जब विवाह के दो ही साल पीछे गायत्री विधवा हो गई। उसके पति को किसी घर के ही प्राणी ने लोभवश विष दे दिया– तो राय साहब ने विद्या को किसी साधारण कुटुम्ब में ब्याहने का निश्चय किया, जहाँ जीवन इतना कंटकमय न हो। यही कारण था कि ज्ञानशंकर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। स्वर्गीय बाबू रामानन्द अभी तक कुँवारे ही थे। उनकी अवस्था बीस वर्ष से अधिक हो गई थी, पर राय साहब उनका विवाह करने को कभी उत्सुक न हुए थे। वह उनके मानसिक तथा शारीरिक विकास में कोई कृतिम बाधा न डालना चाहते थे। पर शोक! रामानन्द घुड़दौड़ में सम्मिलित होने के लिए पूना गये हुए थे। वहाँ घोड़े पर से गिर पड़े, मर्मस्थानों पर कड़ी चोट आ गई। लखनऊ पहुँचने के दो दिन बाद उनका प्राणान्त हो गया। राय साहब की सारी सद-कल्पनाएँ विनष्ट हो गयी, आशाओं का दीपक बुझ गया।

किन्तु राय साहब उन प्राणियों में न थे, जो शोक-सन्ताप के ग्रास बन जाते हैं। इसे विराग कहिए चाहे प्रेम-शिथिलता, या चित्त की स्थिरता। दो ही चार दिनों में उनका पुत्र-शोक जीवन की अविश्रान्त कर्म-धारा में विलीन हो गया।

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