सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
गायत्री ने पूछा– क्यों विद्या, आज थिएटर देखने चलती हो?
विद्या– कोई अनुरोध करेगा तो चली चलूँगी, नहीं तो मेरा जी नहीं चाहता।
ज्ञान– तुम्हारी इच्छा हो तो चलो, मैं अनुरोध नहीं करता।
विद्या– तो फिर मैं भी नहीं जाती।
गायत्री– मैं अनुरोध करती हूँ, तुम्हें चलना पड़ेगा। बाबू जी, आप जगहें रिजर्व करा लीजिए।
नौ बजे रात को तीनों फिटन पर बैठकर थिएटर को चले। माया भी साथ था। फिटन कुछ दूर आयी तो वह पानी-पानी चिल्लाने लगा। ज्ञानशंकर ने विद्या से कहा– लड़के को लेकर चली थीं, तो पानी की एक सुराही क्यों नहीं रख ली?
विद्या– क्या जानती थी कि घर से निकलते ही इसे प्यास लग जायेगी।
ज्ञान– पानदान रखना तो न भूल गयीं?
विद्या– इसी से तो मैं कहती थी कि मैं न चलूँगी।
गायत्री– थिएटर के हाते में बर्फ-पानी सब कुछ मिल जायेगा।
माया यह सुनकर और अधीर हो गया। रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा ली। ज्ञानशंकर ने उसे बढ़ावा दिया। वह और भी गला फाड़-फाड़कर बिलबिलाने लगा।
ज्ञान– जब अभी से यह हाल है, तो दो बजे रात तक न जाने क्या होगा?
गायत्री– कौन जागता रहेगा? जाते ही जाते तो सो जायेगा।
ज्ञान– गोद में आराम से तो सो सकेगा नहीं, रह-रहकर चौंकेगा और रोयेगा। सारी सभा घबड़ा जायेगी। लोग कहेंगे, यह पुछल्ला अच्छा लेते आये।
विद्या– कोचवान से कह क्यों नहीं देते कि गाड़ी लौटा दें, मैं न जाऊँगी।
ज्ञान– यह सब बातें पहले ही सोच लेनी चाहिए थीं न? गाड़ी यहाँ से लौटेगी तो आते-आते दस बज जायेंगें। आधा तमाशा ही गायब हो जायेगा। वहाँ पहुँच जायें तो जी चाहे मजे से तमाशा देखना माया को इसी गाड़ी में पड़े रहने देना या उचित समझना तो लौट आना।
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